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* जैन-गौरव-स्मृतियां
____अर्हन् अवस्था में शेष रहे हुए चार अधाति कर्म भी जब क्षीण हो जाते हैं तब आत्मा शरीर से सदा के लिए मुक्त होजाता है और विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है। शरीर आत्मविकास का साधन है। जब विकास की पराकाष्टा हो जाती है तो शरीर कृतकृत्य होकर आत्मा से पृथक् हो जाता है । इस तरह कर्म और शरीर से मुक्त होकर आत्मा शुद्ध-बुद्ध सिद्ध वन जाता है। यही अवस्था आत्मा का मूलस्वभाव है। इस स्वभाव को प्राप्त कर लेने पर आत्मा शाश्वत रूप से लोक में अग्रभाग पर रहता हुआ । सच्चिदानन्द स्वरूप में निमग्न रहता है। सिद्ध अथवा मुक्तात्मा का स्वरूप अनिर्वचनीय है। आचारांग सूत्र में इस विषय में ऐसा कहा गया हैं:--- .. "सव्वे सरा नियट्टन्ति, तशा जत्थ न विन्जइ, मई तत्थ न गाहिया, ओए, अप्पइट्ठाणस खेयन्ने, से न दीहे, न हस्से, न वट्टे, न तंसे, न चउरसे, न परिमंडले, न किरहे, न नीले, न लोहिए, न हालिद्दे, नसुकिल्ले, न सुरभिगधे न दुरभिगंधे, न तित्ते, कडुए, न कसाए, न अम्बिले, न महरे, न कक्खड़े, न सउए, न. गुरुए, न लहुए, न सीए, न उपहे, न निद्ध, न लुक्खे, न काऊ, न रूदे, न संगे, न इत्थी, न पुरिसे, न अन्नहा, परिन्ने, सन्ने, उयमा न विज्जा अरूची सत्ता अपस्य पयं नत्थि । से न सहे, न रूये, न गंधे, न रसे न फाले, इच्चेवेत्ति बेमि " (५-६)
उक्त सूत्र में मुक्तात्मा की दशा का वर्णन किया गया है । यह अवस्था ऐसी है कि शब्दों के द्वारा इसका वर्णन नहीं किया जा सकता है। शब्दों की वहाँ गति नहीं है । तर्क की वहाँ पहुंच नहीं है, कल्पनाएँ वहां तक नहीं उड़ती
और चुद्धि वहाँ तक नहीं दौड़ती। वह दशा केवल अनुभव-गम्य है । जिस प्रकार गूंगा आदमी गुड़ खाकर उसके रस का प्रास्वादन करता है लेकिन वह उसका वर्णन नहीं कर सकता है। इसी तरह यह अवस्था गूगे के गूड़ की तरह अवाच्य है और केवल अनुभव गम्य है। शाल, श्रागम, वेद, पुराण, श्रुतियां आदि "नेति नेति" कहकर उसके वर्णन में असमर्थता व्यक्त करते है। सर्वज्ञ और सर्व दृष्टा भी उसका वर्णन नहीं कर सकते हैं। यह विषय वाणी से अगोचर, कल्पनातीत और बुद्धि से परे हैं।
वाच्य वस्तु में आकार, वर्ण, गन्ध, रूप, रस और स्पर्श होते हैं।