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>>★ जैन गौरव स्मृतियाँ
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के अंगोपाङ्ग, वृक्ष के अंकुर, पत्र, पुष्प आदि जगत् की व्यवस्था में ईश्वर जैसे किसी व्यक्ति के हस्तक्षेप को स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं है । ये सब कार्य तो जीव और जड़ पदार्थों के विविध परिणमन के फल मात्र हैं । जीव के विविध प्रकार, उनकी विविध अवस्था और समस्त विश्व में प्रवर्तित सुव्यवस्था को समझने के लिए तो कर्म का अविचल नियम हीं पर्याप्त है । कर्मफल के नित्य नियम को तो ईश्वर कत्त त्ववादी भी स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि ईश्वर कर्म के अविचल नियम के अनुसार ही कार्य करता है, वह भी इसमें परिवर्तन नहीं कर सकता है तो कर्म की सत्ता ही बाधित एवं सर्वोपरि रही । अतः ईश्वर को इस प्रपञ्च में न डाल कर कर्म की वाधित सत्ता को ही स्वीकार करना चाहिये ।
इस विषय में एक दूसरा प्रश्न पैदा होता है कि ईश्वर ने यह जगत् किसमें से बनाया ? अर्थात् सृष्टि रचना के पहले क्या अवस्था थी ? यदि यह कहा जाय कि सर्व शून्य था । उस शून्य में से ईश्वर के द्वारा इस सृष्टि की रचना की गई। तो यह कथन सर्वथा अयुक्त है क्योंकि शून्य से कोई वस्तु पैदा नहीं हो सकती है । यह सर्व सम्मत तत्व है कि सत् असत्-नहीं हो सकता है और असत् कभी सत् नहीं हो सकता है। कहा भी हैनासतो जायते भावो नाभावो जायते सतः
सर्वथा असत् पढ़ार्थ कभी उत्पन्न नहीं होता और सत् का कभी सर्वथा भाव नहीं होता । जैसे खर- विनास असत् है तो वह कभी उत्पन्न नहीं हो सकता है और जो आत्मा आदि सत् हैं उनका कभी सर्वथा अभाव नहीं हो सकता है | यदि यह विश्व ईश्वर के द्वारा निर्मित होने के पहले सर्वथा असत् रूप था तो इसकी उत्पत्ति ही नहीं हो सकती है । यदि यह पहले भी सत् रूप था तो इसको उत्पन्न करनेवाला ईश्वर है, यह नहीं कहा जा सकता है। इस तरह यह सृष्टाबाद या ईश्वर कत्तं त्व वाद युक्ति संगत सिद्ध नहीं होता है । इस विश्व के सम्बन्ध में विशिष्टा द्वैतवादियों का कथन इस प्रकार है:"सष्टि रचना के समय जीव और प्रकृति दोनों ईश्वर से विशिष्टाद्वैतवाद, पृथक हुए और ईश्वर ने उन पर नियन्त्रण करना आरम्भ की मान्यता किया परन्तु मूल से ये ईश्वर के ही अंश हैं । ईश्वर बहुरूप होकर इन्हें प्रकटित करता है और पुनः अपने में समाविष्ट कर लेता है ।"
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