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* जैन-गौरव-स्मृतियां ★
सकती हैं । इच्छाओं की पूर्ति करके सुख. पाने का प्रयत्न, करना चालनी को जल से भर देने के प्रयत्न के समान निष्फल है।
.... संसार के समस्त अनुभवी मनीषी महर्षियों ने अपने ठोस ज्ञान के आधार पर यह सत्य तत्व प्ररूपित किया है कि यदि तुम्हें सुख की इच्छा है तो उसे कहीं बाहर न खोजो। वह बाह्य-वस्तुओं में नहीं है। वह है तुम्हारे अन्तरंग स्वरूप की प्रतीति में । उसे अपने अन्दर खोजो उसका साक्षात्कार करना चाहते हो तो आत्मदर्शन करो। वहीं तुम्हें सुख का स्रोतं प्रवाहित होता हुआ दृष्टिगोचर होगा । आत्मदर्शन करने के लिए यह भ्रान्ति मन से दूर करनी होगी कि सुख बाह्य पदार्थों में है। जब तक यह भ्रान्ति बनी रहेगी तब तक आत्मदर्शन नहीं हो सकता और आत्मदर्शन के विना सच्चा सुख और शान्ति प्राप्त नहीं हो सकती। अतः बाह्य पदार्थों का मोह दूर करनाअपरिग्रही होना ही सुख और शान्ति का एक मात्र उपाय है। अपरिग्रह ही शान्ति का मूल है सुख का स्रोत है इसी लिये जैनधर्म ने अपरिग्रह को व्रतों में प्रधान स्थान दिया है। . .. . .......... .
आत्म शान्ति के साथ ही साथ विश्व में शांन्ति और व्यवस्था कायम रखने के लिए भी अपरिग्रह सिद्धान्त का पालन करना आवश्यक है। आज विश्व का वातावरण इतना संचुब्ध और अशान्त हो रहा है, युद्ध के बादल मँडरा रहे हैं, साम्यवाद और साम्राज्यवाद का संघर्प भयानक स्थिति पर पहुँच रहा है, और सारे विश्व में अशांति की ज्वाला धधक रही है इसका कारण मानव की अमर्यादित महत्वकांक्षा और लोलुपवृत्ति है। धनदौलत का लोभ, जमीन का लोस, अधिकार की भावना और एकाधिपत्य के मोहने मानव मस्तिष्क को अशान्त कर रखा है। उसकी सारी शक्ति दूसरों के अपने अधीन करने के लिए संहारक शस्त्रास्त्रों का निर्माण में लगी हुई है। परमाणु बम के बाद उदजन बम के आविष्कार ने दुनिया को और भी अधिक भयभीत बना दिया है। जब तक मानव अपनी इच्छाओं पर अंकुश नहीं लगा लेता है तब तक यह अशान्ति बनी रहने वाली है। जब तक दुनिया के राजनैतिक अथवा आर्थिक क्षेत्र में अत्यधिक विपमता बनी रहेगी तब तक क्रांतियाँ अवश्यंभावी है और तब तक दुनिया को संघर्प की आग में झुलसना पड़ेगा। इस विपमता का कारण परिग्रह वृत्ति है। REEKRICKEKMARK(१६२) XIROKARKICKYA
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