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________________ जैनगौरव स्मृतियां << अनुभवियों का कथन है कि जीवन के लिए आवश्यक समस्त पदार्थ प्रकृति इस परिणाम में उत्पन्न करती है कि जिससे सब की आवश्यकता की पूर्ति हो सके । ऐसा होते हुए भी संसार में नंगे भूखे लोग दिखाई देते हैं इसका क्या कारण है ? इसका कारण है बढ़ी हुई संग्रह वृति । कुछ लोग अपने पास आवश्यकता से अधिक पदार्थ संग्रह कर रखते हैं और दूसरे लोगों को उन पदार्थों के उपभोग से वंचित रखते हैं । इसी कारण लोगों को नंगा-भूखा रहना पड़ता है। एक ओर तो कुछ लोग अपने यहां अत्यधिक अन्न जमा रखते हैं जो सड़ जाता है और दूसरी ओर कुछ लोग अन्न के बिना हाहाकार करते है । एक ओर पेटियों में भरे हुए वस्त्र पड़े-पड़े सड़ रहे हैं और दूसरी ओर लोग ठंड से मर रहे हैं। एक ओर कुछ लोगों के पास इतनी अधिक भूमि है कि जिस में कृषि करना उनके लिए बहुत कठिन है और दूसरी ओर कई लोगों को जमीन का थोड़ा सा टुकड़ा भी नहीं मिलता जिस पर खेती करके अपना पेट पाल सकें । कुछ लोगों के पास रुपयों का इतना अधिक संग्रह है कि उसे जमीन में गाड़ रखा है या तिजोरियों में बंद + कर रखा है और दूसरी ओर लोग पैसे-पैसे के लिए तरस रहे हैं। इस विपस स्थिति के कारण रूस में कम्युनिज्म ( साम्यवाद ) का जन्म हुआ 1 वस्तुतः किसी भी समाज या देश के लिए यह विषम परिस्थिति असा हो होती है । जिस व्यक्ति ने इस पृथ्वी पर जन्म लिया है उसे कम से कम से यह तो जन्म सिद्ध अधिकार होता है कि वह भर पेट भोजन खा सके, पर्याप्तवस्त्रों से वदन ढँक सके और रहने के लिए सुविधामय स्थान प्राप्त हो । वही राज्य सुराध्य या स्वराज्य है जिसमें प्रत्येक प्राणी को इस प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त हों । परन्तु ऐसा सुराज्य आज कहीं दिखाई नहीं देता है इस का कारण यह परिग्रह - भावना ही है । परिग्रह की भावना से पाप की परम्परा चलती है। परिग्रह के वश में पड़ा हुआ प्राणी संग्रह करके ही नहीं रुक जाता है परन्तु वह अपने किये हुए संग्रह की रक्षा के लिए या और संग्रह करने के लिए साम्राज्यवाद को जन्म देता है । इससे साम्राज्यवाद रूपी राक्षस पैदा होता है जिसके दांतों के नीचे करोड़ों मनुष्य पिस जाते हैं। करोड़ों मनुष्यों की स्वाधीनता लुटली. जाती है, उन्हें पशुओं की तरह परतंत्र रहना पड़ता है । संसार के कई देश पराधीन बनाये जाते हैं और अमानुषिक अत्याचारों के वल पर उनका xaxxxxxxxx@XXXX({{{XQI@IK@XXXOOXX Com
SR No.010499
Book TitleJain Gaurav Smrutiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManmal Jain, Basantilal Nalvaya
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1951
Total Pages775
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size44 MB
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