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MISSE* जैन-गौरव-स्मृतियां RSe e
है । यह धर्म निर्ग्रन्थ धर्म भी कहा जाता है इसका कारण इस धर्म का अपरिग्रह के सिद्धान्त पर अधिक जोर देना ही है। इस धर्म के प्रधान पुरुष धनजन आदि सांसारिक सम्बन्धों से मुक्त होकर आत्म साधनों में लीन रहते थे । वे संसार के वाह्यपदार्थों की ग्रन्थी से मुक्त थे अतः निर्गन्थ कहलाते थे। ऐसे निर्ग्रन्थ अपरिग्रह के जीवित आदर्श थे ।
निर्गन्य धर्मोपदेशकों ने परिग्रह में हिंसा के तत्त्वों का अवलोकन किया इसलिए उन्होंने अहिंसा की आराधना के लिए परिग्रह के त्याग को
आवश्यक समझा । वस्तुतः परिग्रह हिंसा है, वल्धन है और अशान्ति का मूल है। जैन सिद्धान्तों में परिग्रह को मुख्य बन्धन कहा गया है। जैसा कि सूत्रकृताङ्ग सूत्र के आरम्भ में कहा गया है:
बुझिज्जत्ति तिउट्टिन्जा बंधणं परिजाणिया । किमाह बंधणं वीरो किं वा जाणं तिउट्टइ ।।१।। चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्म किसाभवि।.
अन्नवा अगुजाणाइ एवं दुक्खाण मुच्चइ ॥२॥ बन्धन को जानकर उसका छेदन करना चाहिए। ऐसा उपदेश दिये जाने पर अम्बू स्वामी प्रश्न करते हैं कि वीर भगवान् ने वन्धन का क्या स्वरूप बताया है और क्या जानकर जीव बन्धन को तोड़ता है ? इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा है कि-परिग्रह ही बन्धन है, जो व्यक्ति द्विपद 'चतुष्पद आदि चेतन प्राणी को अथवा अचित्त स्वर्ण आदि पदार्थों को परिग्रह रूप से ग्रहण करता है, दूसरे को परिग्रह करने की अनुज्ञा करता है वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। . तात्पर्य यह है कि परिग्रह को ही मुख्य बन्धन कहा गया है। परिग्रह को मुख्य वन्धन कहने का क्या आशय है, यह विचार करना चाहिए । साधारण लोग परिग्रह को पाप नहीं मानते इतना ही नहीं बल्कि उनकी दृष्टि में जो जितना बड़ा परिग्रह है वह उतना ही बड़ा पुण्यात्मा और आदरणीय भी है। आज के युग में लोग धनवानों को ही "बड़े आदमी" समझा करते हैं। • परन्तु शास्त्रकार तो परिग्रह को पाप और बन्धन बता रहे हैं। परिग्रह का मूल और उसके परिणामों का विचार करने से यह स्वयं प्रतीत हो जाएगा
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PUNAR AAAAYAK AGAN