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* जैन-गौरव-स्मृतियां Arcise
और अहिंसक कहे जाते हैं। इस तरह जैनधर्म यह कहता है कि संव. जीवों के प्रति अहिंसक भावना रक्खो । यदि सत्यरूप में अहिंसक भावना आ जाती है तो सूक्ष्म जीवों की विराधना होने पर भी वह हिंसा नहीं है । हृदयपूर्वक अहिंसा की आराधना करनेवाला व्यक्ति यथासम्भव अधिक से अधिक जीवों के प्रति अहिंसक रहेगा। जिन 'जीवों की हिंसा का परिहार साध्य नहीं है उनके प्रति भी वह हृदय से तो अहिंसक ही रहता है। प्रवृत्ति से होनेवाली उनकी हिंसा के लिए वह अपनी कमज़ोरी और विवशता का अनुभव करता है । इस सकम्प प्रवृत्ति के कारण वह हिंसा उसके लिए बन्धन रूप नहीं होती हैं । अतः जैन धर्म में प्रतिपादित अंहिसा अव्यावहारिक नहीं है। ... ... . . अहिंसा के महान् उपदेष्टा तीर्थंकरों ने अपने जीवन में अहिंसा-सिद्धांत का परिपूर्ण पालन कर उसकी व्यावहारिकता प्रदर्शित कर दी है। उन्होंने अपने आचरण के द्वारा अहिंसा को मूर्तरूप दिया और बाद में जगत् को उसका उपदेश दिया.। जैन-मुनि अहिंसा की सार्थना कर के उसकी व्यवहारिकता को प्रत्यक्ष रूप से प्रकट कर रहे हैं। . .
. . जैनधर्म ने अहिंसा की आराधना के हेतु विभिन्न भूमिकाएँ नियो: जित की है। मुनि उच्चकोटि की अहिंसा की आराधना करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति इस कोटियों नहीं आ सकता है अतः जैनधर्म ने अहिंसा धर्म के आराधक की कई श्रेणियाँ बनाई हैं । गृहस्थ के लिए स्थूल हिंसा का त्याग करना ही आवश्यक बताया गया है । निरपराध त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करना गृहस्थ का अहिंसा व्रत है। . ....... .:. जैनशास्त्रों में मुख्यतया हिंसा के दो भेद बताये गये है-प्रथम संकल्पी हिंसा और दूसरी आरम्भजा हिंसा । जान बूझकर मारने की भावना से किसी प्राणी को मारना संकल्पी. हिंसा है-जैसे शिकारी और कसाई के द्वारा होने वाली हिंसा । मारने की भावना न होने पर भी जीवन व्यवहार के लिए आवश्यक अन्ननिष्पत्तिकरण, भवन निर्माण आदि कार्यों में होने वाली हिंसा आरम्भजा हिंसा है। प्रारम्भजा हिंसा भी दो प्रकार की हैं सार्थक
और निरर्थक । जो किसी आवश्यक प्रयोजन से की जाती है वह सार्थक हिंसा है और जो बिना प्रयोजन केवल मनोविनोद आदि के लिए की जाती है वह