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* जैन-गौरव-स्मृतियां *
.. कहलाते हैं। जिनकी चेतना-शक्ति- अव्यक्त है, जो स्वेच्छापूर्वक एक स्थान से
दूसरे स्थान पर जाने-आने में असमर्थ हैं. वे स्थावर जीव कहे गये हैं। पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति के जीव स्थावर जीव हैं। जैन धर्म ही की यह विशेषता है कि वह पृथ्वी आदि में भी जीव मानता है। आधुनिक विज्ञान भी धीरे-धीरे इनकी चेतनता स्वीकार करता जा रहा है। पानी और वनस्पति म भी जीव है यह विज्ञान के द्वारा सिद्ध हो चुका है। किसी समय वनस्पति - की सचेतनता भी संदिग्ध थी परन्तु विज्ञान ने अब यह सिद्ध कर दिया कि वनस्पति में भी अन्य प्राणियों की तरह चेतना है। विज्ञान अभी अपूर्ण है, वह किसी समय पृथ्वी, वायु, अग्नि आदि में चेतना सिद्ध करने में सफल हो सकेगा यह आशा रखना चाहिये । सर्व ज्ञानियों ने तो इन्हें सचेतन कहा ही है । अन्ततोगत्वा विज्ञान वही सिद्ध करनेवाला है जो ज्ञानीजन हजारों वर्ष ..पहल कह चुके हैं। अस्तु । तात्पर्य इतना ही है कि जैनधर्म पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पति में भी जीव मानता है और यथासम्भव इन जीवों की. हिंसा से वचने का भी विधान करता हैं। सम्पूर्ण त्यागी वर्ग के लिए तो इन सूक्ष्म • जीवों की हिंसा से भी बचने का अनिवार्य विधान है। आंशिक-मर्यादित- त्याग करनेवाला गृहस्थ त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है.। . . .
जैन धर्म अहिंसा की इतनी व्यापक व्याख्या करता है इससे कई लोग यह आक्षेप करते हैं कि जैन धर्म में प्रतिपादित अहिंसा अव्यवहारिक है।
क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार सारा विश्व ही जीवमय अहिंसा की है। जल में जीव हैं. स्थल में जीव हैं, आकाश जीवों से व्यवहारिकता व्याप्त है, और सारे लोक में जीव भरे हुए हैं तो जीवन
. व्यवहार करते हुए उन जीवों की हिंसा अनिवार्य है फिर अहिंसा व्यवहारिक कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जैन धर्म वाह्य-क्रिया की अपेक्षा भावना पर विशेष बल देता है। यदि भावना में अहिंसा व्याप्त है तो वाद्य-रूप में अनिवार्य प्राणि-घात होने पर भी वह बन्ध का कारण नहीं होता है। जैन सिद्धान्त में हिंसा-अहिंसा की परिभापा करते हुए यही कहा गया है.-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ।” प्रमोदविपय और कपाय के वशीभूत होकर जो प्राण-घात किया जाता है वह हिंसा कही जाती है । जिस प्रवृत्ति में कपाय है, प्रमाद है, उसमें चाहे द्रव्य प्राण-. घात न भी हो तो भी वह हिंसक प्रवृत्ति ही है। इसके विपरीत यदि भावों में