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जैन-गौरव स्मृतियां
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' "का निरूपण किया गया है ।
. परिपूर्ण आत्म कल्याण के लिए पूर्ण अहिंसा, पूर्ण सत्य, पूर्ण ___ अचौर्य, पूर्ण ब्रह्मचर्य, और पूर्णः परिग्रह-निवृत्ति ी आवश्यकता होती है ।
... जो आत्मा उनकी परिपूर्ण अराधना का यत्न करता है:
महाव्रत. और वह सर्व विरत या.साधु कहा जाता है। प्रत्येक व्यक्ति से . अणुव्रत · उनके परिपूर्ण अराधन की, अाशा नहीं की जा सकती है . - अतः जैनधर्म अांशिक आराधना की व्यवस्था की है । यह अधिक आराधना
परिपूर्णता की ओर ले जानेवाली हैं क्रमशं आंशिक आराधना को विकसित करते हुए परिपूर्णता प्राप्त की जाती है। जो अहिंसा वृतों की पूर्णतयां आराधना करते हैं वे सहाव्रती कहे जाते हैं और जो कांशित्र आराधना' करते हैं वे अणुनति कहे जाते हैं। हिंसादि प्राप्त कर्मों का सर्वथा त्याग करने वाले साधु के व्रतों को महाव्रत कहते हैं और मर्यादित त्याग करने वाले श्रावक के व्रतों को अनुव्रत कहते हैं। महा व्रतों की अपेक्षा इन का क्षेत्र और विषय अल्प होने से अणुव्रत कहे जाते हैं।
अमृत का लेश मात्र भी हितकारी ही होता है इसी तरह धर्म की लेशमात्र आराधना भी हितकारिणी है । जिस व्यक्तिकी जिस प्रकार की शक्ति है उसके अनुसार उतने अंश में धर्माराधन करना उसके लिए कल्याण करने वाला है। प्रत्येक अवस्था में रहे हुए व्यक्ति को अपने विकास का अधिकार है और वह अपनी स्थिति के अनुसार विकास के साधनों को न्यूनाधिक रूप से स्वीकार कर सकत है। धर्म के विशाल क्षेत्र में प्रत्येक स्थिति के व्यक्ति के लिए अवकाश है अतः इस उदार दृष्टिकोण से · धर्म की कई सौम्य आकृतियाँ बताई गई हैं। गृहस्थाश्रम का निर्वाह करते हुए गृहस्थ सम्पूर्ण अहिंसा और परिपूर्ण सत्य की आराधना करने में समर्थ नहीं हो सकता है अतः सम्पूर्ण अहिंसा आदि की आराधना को अपना लक्ष्य बनाकर मर्यादित . अहिंसा प्रमुख अणुव्रतों के पालन करने की व्यवस्था की गई है। इससे. जीवन के चाहे जिस क्षेत्र में होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति को अपनी शक्ति के अनुसार धर्म की आराधना करने का अवसर प्राप्त होता है । अतः जैनधर्म ने आगार धर्म और अनगार धर्म ( श्रावक धर्म और साधु धर्म ) की व्यवस्था
SASAYARI HAMAR
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