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, जैन- गौरव - स्मृतियां
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आया है । ऐसा समझ कर उसे शान्ति पूर्वक सहन करता है और भविष्य में सावधान रहने की प्रेरणा प्राप्त करता है तात्पर्य यह है कि जैन संस्कृति व्यक्ति को पुरुषार्थं की प्रेरणा करती है । वह प्रारब्धवागिनी या किसी अन्य शक्ति पर अवलम्बित नहीं है । वह तो व्यक्तिमात्र को अपने पुरुषार्थं के द्वारा अभ्युदय करने की शिक्षा देने वाली श्रमप्रधान संस्कृति है ।
धर्म व्यवस्था के साथ ही साथ समाज व्यवस्था, राज व्यवस्था, उद्योग, कला आदि व्यवस्था के द्वारा कोई भी संस्कृति चमक उठती हैं । संस्कृति के विकास में इन सब चीजों का महत्व होता है। जैनधर्म की अहिंसा : की आध्यात्मिक भावना ने समाज व्यवस्था, राजव्यवस्था, उद्योग और कला कौशल को भी अपने रंग में रंग दिया है। जैन संस्कृति ने इन्हें अपना नया रूप दिया है ।
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जैनधर्म के अनुसार समाज व्यवस्था में जन्म जात ऊँच नीच की भावना को कोई स्थान नहीं हैं । जाति भांति के भेद को जैनधर्म ने कभी प्रधानता नही दी है । प्रत्येक, जाति वर्ग औ सप्रदान का व्यक्ति जैन हो सकता " है । जो भी व्यक्ति जैनधर्म के प्रारण भूत सिद्धान्तों में विश्वास रखता है, उन्हें अपनाना है, फिर चाहे वह किसी भी जाति या देश का हो वह जैन है । जैन संस्कृति में इसके लिए नहीं स्थान है जो किसी जैनकूल में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति का है । इस विषय का विस्तृत वर्णन अलग प्रकरण में स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।
इसी तरह जैनाचार्यों ने राजनीति में भी अहिंसा का पुट दिया है । जैनाचार्यों ने राजा के कर्तव्य, उसके अधिकार आदि २ वातों पर प्रकाश डालने वाले विविध सुन्दर ग्रन्थों का निर्माण किया है । भद्रवाहुसंहिता अनीति आदि ग्रन्थों से राज कर्तव्य का निरूपण है । उन्हें देखने से प्रतीत होता है कि जैन संस्कृ में राजा परमेश्वर का अंश है इस भावना को कोई स्थान नहीं है । भारत में जो जो जैन राजा हो गये हैं उन्होंने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए हिंसा का प्रचार किया है । उनके समय में प्रजा समृद्ध थी, बलवान थी और सब तरह से सुख शान्ति का अनुभव करती थी । इससे यह स्पष्ट है कि जैन राजनीति जनताका कल्याण करनेवाली सिद्ध हुई है ।
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