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प्रस्तावना। हमारे वर्तमान समाजमे ऐसे भाइयोंकी संख्या अधिक हो, जो कि "डिरेक्टरी" शब्दके मुनते ही एकवार चौंक पड़ेंगे और आश्चर्य करेंगे कि “डिरेक्टरी" क्या वस्तु है ? ऐसा -होना उचित मी है, क्योंकि डिरेक्टरी न तो कोई सनातन वस्तु है, न धार्मिक वस्तु है और न हमारे देशके अन्य किसी समाजमें भी इसका प्रचार है । परन्तु डिरेक्टरी है बड़े कामकी चीज और विशेप करके उन लोगोंके लिये जिनका व्यापारसे कुछ संबंध है। .
डिरेक्टरी (Directory) शुद्ध अग्रेजी भाषाका शब्द है। जिसका अर्थ "वतलानेवाला" "इशारा करनेवाला" या परिचय करानेवाला है । प० मथुराप्रसाद मिश्रने डिरेक्टरीका अर्थ "पद्धति" शब्द किया है, और वास्तवमे डिरेक्टरी और पद्धतिमें बहुत कम भेद है । पद्धति या पटल ऐसे ग्रंथों. को कहते है, जिनमे केवल वंश विशेषके पुरुषोंके नाम, उनके निवासस्थान और तदनंतर उनकी संतानमें परस्परके भेदाभेदका मी कुछ व्योरा लिखा हो। इसी प्रकार डिरेक्टरी में भिन्न २ प्रांतोंके
और शहरोंके भिन्न २ प्रकारके व्यापारियोंके नाम, उनके पूरे पते अथवा विक्रीकी चीजोंके नोटिसोंका उल्लेख होता है । किसी देशकी डिरेक्टरीमें उस देशकै प्रसिद्ध २ पुरुषों और कवियों आदिके नाम भी होते है । विलायत, अमेरिका जर्मनी इत्यादि देशोंमें तो डिरेक्टरीका इतना प्रचार है कि, वहां प्रत्येक प्रत्येक विभागके व्यापारियों या भिन्न. २ जातिके अन्यान्य पेशेवाले लोगोंकी अपनी २ डिरेक्टरी होतीहै। ___ मारतकी सबसे पहेली डिरेक्टरी सन् १८६३ ईस्वीमें बनी थी । इसका कर्ता थैकर नामका अग्रेज सौदागर था । यह डिरेक्टरी अवतक "थैकर्स इंडियन डिरेक्टरी" नामसे मशहर । है। इस डिरेक्टरीसे न केवल अंग्रेज व्यापारियोंकोही लाभ हुआहै वरन् सब प्रकारके व्यापारियोंको वडा मारी लाभ पहुंचा है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि, जो डिरेक्टरी पहले पहल केवल ५१२ पृष्टोंमे छपी थी, वह आजकल दो हजारसे ऊपर पृष्ठोमें निकलती है जो प्रतिवर्ष लाखो प्रतियां हाथोंहाथ बिकती हैं । जिस व्यापारीके पास डिरेक्टरी है, मानो उसके पास देशभरके व्यापारी, राजा, महाराजा या महाजनोसे पत्रव्यवहारका सिलसिला तयार है।
कोई समय वह था कि, जब जैनधर्म इस देशमें चारों ओर फैल रहा था, परन्तु समयके परिवर्तनसे आजकल वह स्थिति नहीं है । इस समय इस बातका पूरा २ पता लगाना कठिन है कि भारतवर्षके किस प्रान्तमें कितने जैनी भाई किस सप्रदायके हैं और वे किस अवस्थामें काल विता रहे है। भला जब यह दशा समाजकी हो रही-ऐसी दशामे हम एक दूसरेके सुख दुःखमें सहायता करना या निज संप्रदायके हितका कोई कार्य आरम्भ करके उसको उन्नतिपर पहुँचाना कठिन ही नहीं वरन् असंभव है क्योंकि प्रत्येक सामाजिक कार्यके निर्वाहकी जड़ एकता है । अतः जब हमको हमारी संप्रदायकी जातियां, जनसख्या कितनी है, किस अवस्थामें है,