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४४ श्रवणबेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीय अन्यत्र भी कहा है
"शिखी धर्मभावे यदा क्लेशनाग.
सुतार्थी भवेन्म्लेच्छ तो भाग्यवृद्धि ।" इत्यादि मूर्ति और दर्शको के लिए तत्कालीन ग्रहों का फलमूर्ति के लिए फल तत्कालीन चन्द्रकुण्डली से कहा जाता है। दूसरा प्रकार यह भी है कि चर स्थिरादि लग्न नवाग और त्रिंगाश से भी मूर्ति का फल कहा गया है। लग्न, नवांशादि का फल
लग्न स्थिर है और नवाश भी स्थिर राशि का है तथा त्रिशाशादिक भी पड्वर्ग के अनुसार शुभ ग्रहो के है। अतएव मूर्ति का स्थिर रहना और भूकम्प, विजली आदि महान् उत्पातो से मूर्ति को रक्षित रखना सूचित करते है। चोर, डाक आदि का भय नही हो सकता। दिन प्रतिदिन मनोज्ञता वढती है और चामत्कारिक शक्ति अधिक आती है। बहुत काल तक सब विघ्न-बाधाओ से रहित हो कर उस स्थान की प्रतिष्ठा को बढाती है। विर्मियो का आक्रमण नही हो सकता
एकोऽपि जीवो वलवास्तनुस्थ मितोऽपि सौम्योऽप्यथवा बली चेत् । दोषानशेषान्विनिहति सद्य स्कदो यथा तारकदैत्यवर्गम् ।। गुणाधिकतरे लग्ने दोषेऽत्यल्पतरे यदि । सुराणा स्थापनं तत्र कतुरिष्टार्थसिद्धिदम् ।।
भावार्थ-इस लग्न में गुण अधिक है और दोष बहुत कम है अर्थात् नहीं के बराबर है । अतएव यह लग्न सम्पूर्ण अरिष्टो को नाश करने वाला और श्रीचामुण्डराय के लिए सम्पूर्ण अभीष्ट अर्थों को देनेवाला सिद्ध हुआ होगा।