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श्रवणवेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीर्य
शुक्रफल--
यह लग्न से तृतीय और राहु के साथ है। अतएव इसका फल प्रतिष्ठा के ५वे वर्ष मे सन्तान-सुख को देना सूचित करता है । साथ-ही-साथ उसके मुख से सुन्दर वाणी निकलती है। उसकी बुद्धि सुन्दर होती है । उसका मुख सुन्दर होता है और वस्त्र सुन्दर होते है । मतलव यह है कि इस प्रकार के शुक्र के होने से उस पूजक के सभी कार्य सुन्दर होते है ।
सुखे जीवे सुखी लोक सुभगो राजपूजित । विजातारि कुलाध्यक्षो गुरुभक्तश्च जायते ।।
लग्नचन्द्रिका अर्थ-सुख अर्थात् लग्न से चतुर्थ स्थान मे वृहस्पति होवे तो पूजक (प्रतिष्ठाकारक) सुखी, राजा से मान्य, शत्रुओ को जीतनेवाला, कुलशिरोमणि तया गुरु का भक्त होता है। विशेप के लिए वृहज्जातक १६ वा अध्याय देखो। + मुख चारुभाप मनीषापि चावी मुख चार चारूणि वासासि तस्य।
___-बाराही सहिता भार्गवे सहजे जातो धनधान्यसुतान्वित । नीरोगी राजमान्यश्च प्रतापी चापि जायते ।।
-लग्नचन्द्रिका अर्थ-शुक्र के तीसरे स्थान में रहने से पूजक धन-धान्य, सन्तान आदि सुखो से युक्त होता है । तया निरोगी, राजा से मान्य और प्रतापी होता है । वृहज्जातक में भी इसी आशय के कई श्लोक हैं जिनका तात्पर्य यही है जो ऊपर लिखा गया है।