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श्रवणवेत्गोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीर्थ
'स्थलपुराण' में भी पाया जाता है।
'भुजयलिचरित' के अनुसार जैनाचार्य जिनसेन ने पोदनपुरस्य मूर्ति का वर्णन चामुण्डराय की माता कालल देवी को सुनाया । उसे सुन कर मातश्री ने प्रण किया कि जबतक गोम्मटदेव के दर्शन न कर लूगी, दुग्ध नही लूगी। मातृभक्त चामुण्डराय ने यह सवाद अपनी पत्नी अजितादेवी के मुख से सुना और तत्काल गोम्मटेश्वर की यात्रा को प्रस्थान किया। मार्ग मे उन्होने श्रवणबेल्गोल की चन्द्रगुप्त वस्ती मे भगवान पार्श्वनाथ के दर्शन किए और अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु के चरणो की वन्दना की । रात्रि को स्वप्न आया कि पोदनपुर वाली गोम्मटेश्वर की मूर्ति का दर्शन केवल देव कर सकते है, वहा की वन्दना तुम्हारे लिए अगम्य है, पर तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न होकर गोम्मटेश्वर तुम्हे यही दर्शन देंगे। तुम मन, वचन, काय की शुद्धि से सामनेवाले पर्वत पर एक स्वर्णवाण छोडो और भगवान के दर्शन करो । मातश्री को भी ऐसा ही स्वप्न हुआ। दूसरे दिन प्रातःकाल ही चामुण्डराय ने स्नान पूजन से शुद्ध हो चन्द्रगिरि की एक शिला पर अवस्थित होकर, दक्षिण दिशा को मुख करके एक स्वर्णवाण छोडा, जो वड़ी पहाड़ी (विन्ध्यगिरि) के मस्तक पर जाकर लगा । बाण लगते ही विन्ध्यगिरि का शिखर कांप उठा, पत्थरो की पपडी टूट पड़ी और मैत्री, प्रमोद और कारुण्य का ब्रह्मविहार दिखलाता हुआ गोम्मटेश्वर का मस्तक प्रकट हुआ। चामुण्डराय और उसकी माता की आखो से भक्तिवश अविरल अश्रुधारा वहने लगी। तुरंत असख्य मूर्तिकार वहा आ गए । प्रत्येक के हाथ में