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श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जैन-तीयं
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उन्होने चक्रवर्ती को उत्तमोत्तम भेटें प्रदान की। किन्तु जब भरत दिग्विजय के पश्चात् अयोध्या लौटे तो उनका चक्र नगर के गोपुर द्वार को उल्लघन करके आगे न जा सका। इससे सेनापति आदि प्रमुख लोगो को यह जानकर विस्मय हुआ कि अभी देश मे कोई ऐसी शक्ति विद्यमान है जो चक्रवर्ती की अधीनता स्वीकार करने को तत्पर नहीं है। उस समय चक्रवर्ती ने अपने पुरोहितो को बुलाकर चक्र के रुकने का कारण पूछा और मन में सोचा कि अभी कोई मेरे राज्य मे ही असाध्य शत्रु है जो मेरा अभिनन्दन नहीं करता और न ही मेरी वृद्धि चाहता है। निमित्तज्ञानी पुरोहितो ने भरत से कहा कि यद्यपि आपने बाहर के लोगो को जीत लिया है तथापि आपके घर के लोग आपके अनुकूल नही है। ये आपके भाई अजेय है और इनमे भी अतिशय युवा, धीर, वीर और बलवान वाहुवली मुख्य है। आपकी माता के उदर से उत्पन्न आपके भाइयो ने निश्चय किया है कि वे भगवान आदिनाथ के अतिरिक्त किसी को प्रणाम नही करेगे। आपको उनके पास दूत भेजकर सदेशा भेजना चाहिए कि आपका बड़ा भाई पिता के तुल्य है, चक्रवर्ती है और सब प्रकार से पूज्य है। अत. आपके बिना यह राज्य उनको सतोष का देनेवाला नहीं हो सकता। आपको उन्हे प्रणाम करना ही चाहिए। भरत के दूत भेजने पर उसके सहोदर भाइयो ने आपस मे परामर्श किया और इसके फलस्वरूप कि अब क्या करना चाहिए, भगवान ऋपभदेव के समवशरण मे पधारे। भगवान जो स्वय राज्यलक्ष्मी को जीर्ण तृणवत् छोड चुके थे, कैसे उनको