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॥ प्रस्तावना ॥
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मनुष्य का कर्तव्य खान पान नहीं है मगर उत्क्रान्ति है. उत्क्रान्ति दो प्रकार की होती है :- दैहिक व आत्मिक. जि. नमें से आत्मिक उत्क्रान्ति श्रेष्ट है, ताहम भी हमें दैहिक को नहीं भूल जाना चाहिये. इन दोनों उत्क्रान्ति का आधार धर्म ही पर है, क्योंकि धर्म रूप धरि के बिना दैहिक व आत्मिक उत्क्रान्ति रूप गाडी नहीं चल सक्ती.
विना धर्म के भी संसार सुखमय द्रष्टिगोचर होता तो है मगर वो मृगतृष्णावत् है; वास्तव में जैसे मृगजल, जल नहीं है वैसे ही विना धर्म के दृष्टिगोचर होता हुवा सुखी संसार दर हकीकत में सुखी नहीं है. परन्तु अंतर 'पटमें दुखरूप ज्वाला विद्यमान है. कहने का तात्पर्य यह है जहां शुद्ध धर्म हैं वहां ही सुखी संसार व आत्मो कान्ति दोनों मोजूद है के जो मात्र जीवन का खास कर्तव्य है, परन्तु जहां तक धर्म का सच्चा रहस्थ नहीं कानने में वे atics हृदयशून्य धर्म व बाहरी घा र्मिक क्रिया से कुछ लाभ प्राप्त नहीं हो सकता, अतएव . धर्मका सवां संस्कार डालना होवे तो उसके वास्ते अनुकूल समय वाल्यावस्था ही है. इन दोनों कारणों से याने शुद्ध धर्म संस्कार डालने व वहभी बचपन में ही डालने के श्राशय से, आसानी से समझ सके एसी शैली में कितने वर्षोंके अनुभव के पश्चात् मांगरोल जैनशाला के