________________
६८
सम्यक्त्व विमर्श
पूर्वाचार्यों के विषय वर्णन का क्रम तीन प्रकार का रहा है,१ पूर्वानुपूर्वी २ पश्चानुपूर्वी और ३ अनानुपूर्वी। कुछ विषयो मे पूर्वानुपूर्वी क्रम रहा है और कुछ मे पश्चानुपूर्वी । गुण वृद्धि की दृष्टि से नमस्कार मन्त्र का साधु-पद ही मूल स्थान है । इसी मे गुण वृद्धि होने पर उपाध्यायादि पद की प्राप्ति होती है। उसी प्रकार सम्यक्त्व के पांच लक्षणो मे प्राथमिकता, 'आस्तिक्य' गुण की है । यह मूल भूमिका है। इस पर ही अनुकम्पादि गुण प्रकट होते है । भगवद्वाणी पर श्रद्धा होने पर ही स्थावरादि जीवो की अनुकम्पा होती है और भाव अनुकम्पा की प्राप्ति तो यही होती है। सम्यग्दृष्टि यह विश्वास कर लेता है कि जीव की दयनीय दशा (अनुकम्पा के योग्य दुखी अवस्था) उसके हिंसादि पापो के कारण हुई है । सभी दुखो का मूल मिथ्यात्वादि पापो मे रहा हुआ है। जिस प्रकार वह दूसरे जीवो की दुखी अवस्था देख कर अनुकम्पा करता है, उसी प्रकार वह अपनी आत्मा पर भी अनुकम्पा करता है। उसकी अनुकम्पा, दु.ख के कारणो (१८ पापो) के प्रति निर्वेद और सुख के कारणो (मोक्ष के साधनो) के प्रति संवेग लाती है। निर्वेद और सवेग, जीव मे 'समत्व' उत्पन्न करते हैं। इसलिए आस्तिक्य के बाद अनुकम्पा और उसके बाद निर्वेद मानना उचित है । बिना आस्था के निर्वेद संभव नही है, और बिना निर्वेद के सवेग नही हो सकता। जब संवेग निर्वेद ही नही, तो ममत्व की प्राप्ति कैसे होगी ? अतएव पश्चानुपूर्वी ढग से आस्तिक्य को प्राथमिकता देना ही उचित होगा । परमतारक प्रभु महावीर के