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विश्व-धर्म
गोवध बंदी जैसे सामान्यतम विषय मे भी हिन्दू-कुलोत्पन्न राज्यमन्त्री अनुकूल नही बनते, जिसके लिए आमरण अनशन करने के लिए सैकड़ो व्यक्ति कमर कस रहे हैं, तब तत्त्वज्ञान के विषय मे एकमत कैसे होगे ?
जब मनुष्य एक मत नही हो सकते, तो शेष रहा धर्म । यदि धर्म का रूप जन रुचि के अनुसार बनाया जाय, तो वह धर्म रहेगा ही कैसे ? सबकी रुचि के अनुसार स्वाग सजनेवाले की स्थिति क्या होती है ? उसका अस्तित्व कैसे कायम रह सकता है ? वह तो फिर अधर्म की प्रचूरता मे ही खो जायगा।
जैनधर्म विशाल अवश्य है, किंतु वह अपने आप मे विशाल होकर भी बहुत ही सिमटा हुआ है । अपने रूप मे वह बहुत ही संक्षिप्त है । वह सर्व व्यापक नहीं है। सर्व व्यापक हैआश्रव । आश्रव का क्षेत्र लोक-व्यापी है । पाप, अधर्म एवं बन्ध का क्षेत्र समस्त लोकाकाश है । संवर तो एकदम सिमटा हुआ, थोड़े-से स्यान मे रहा हुआ है । विशालतम भयानक वन के समान आश्रव है। उसमे सवर की सडक तो पतलीसी लकीर के समान बनी हुई है । यद्यपि वह सडक अपने यात्री को एक ओर से छोर तक पहुँचा देती है, तथापि वह लबी होती हई भी है तो पतली-सी रेखा । उसकी अपेक्षा शेष रहा हुआ वन, कितना विशाल और विशालतम होता है। इसी प्रकार जैनधर्म, मिथ्यात्व से निकल कर सिद्ध स्वरूप तक पहुँचा सकता है, फिर भी उसका मार्ग बहुत ही सिमटा हुग्रा, पतली-सी सडक के समान है । पाप, अधर्म और आश्रव से अनन्त भाग न्यन । अधर्म का क्षेत्र, धर्म की अपेक्षा अनन्त गुण अधिक रहा है और