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विश्व-धर्म
लिखा कि 'मिध्यात्व सभी द्रव्यो से संबंध रखता है ।' श्री जिन वचनो मे किंचित मात्र भी सन्देह किया, तो मिथ्यात्व का भाजन हो जाता है । व्रत - चारित्र की बात दूसरी है । वह शक्ति से सम्बन्ध रखता है । हृदय से चाहते हुए भी शक्ति की न्यनता से देश- चारित्र होता है । चारित्र के गुणस्थान भी पृथक् पृथक हैं । सम्यक्त्व के लिये तो एक मात्र चौथा गुणस्थान ही है । इसमे देश और सर्व का विभाग नही है । और श्रद्धा तो मात्र अभिप्राय का विषय होने के कारण चारित्र के समान शक्ति का प्रश्न भी उपस्थित नही होता । जमाली का चारित्र उत्तम था, किंतु एक विषय मे श्रश्रद्धा हो जाने से वह विराधक हुआ ( मिथ्यात्वी कहलाया ) । इसलिये श्रद्धा तो पूर्ण रूपेण शुद्ध होनी चाहिये । यदि कोई बात समझ मे नही आवे, तो अपनी बुद्धि की न्यूनता मानकर " तमेव सच्चं णिसंकं जं जिर्णोह पवेइयं "कहकर श्रद्धा का बल कायम रखना चाहिये । अश्रद्धालु बनकर मिथ्यात्व को नही अपनाना चाहिये ।
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विश्व-धर्म
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प्रश्न- जैनधर्म तो विराट है, विशाल है, विश्वधर्म होने के योग्य है । फिर आप इसे संकुचित दायरे मे क्यो बाँध रहे हैं ? उत्तर- हाँ, जैनधर्म विराट है, विशाल है और विश्वधर्म होने के योग्य भी है। ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा जैनदर्शन, नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवलोक तथा लोकान्त मे सिद्धो तक है । देश चारित्र की अपेक्षा पशु, पक्षी आदि संज्ञी तियंचों