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सम्यक्त्व विमर्श
लिए भी-अन्तर्मुहूर्त मात्र भी सम्यक्त्व को अपना ले, एकबार इस आधार-स्तभ को पकडले, तो निहाल हो जाय । फिर मिथ्यात्व का उस पर जोर नही चल सकता। वह जीव कभी पन मिथ्यात्व के चक्कर मे आ भी जाय, तो उसमे लगे सम्यक्त्व के सस्कार उसका उद्धार करके ही छोड़ते हैं । फिर उस आत्मा की मुक्ति मे सन्देह नही रहता । मिथ्यात्व की यह शक्ति नही कि उस आत्मा को अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन से अधिक ससार मे रोक सके । यह सम्यक्त्व रूपी महान् आधार स्तंभ, अपतित जीवो के लिए तो उपकारी है ही । उन्हे १५ भव से अधिक नही करने देता । किन्तु पतित जीवो के लिए भी उपकारी है। उन्हे अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन के पूर्व ही मोक्ष में पहुँचा देता है।
सम्यक्त्व रूपी आधार-स्तंभ को दृढता पूर्वक पकड़ने वाला चारित्र को भी प्राप्त कर लेता है और अप्रमत्त होकर अकषायी-वीतराग बन जाता है । वह सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर सिद्ध हो जाता है । जिसने इस आधार को छोडा, उसका चारित्र भी व्यर्थ होजाता है । उपशांत-मोह वीतराग, ग्यारहवे गणस्थान से गिरकर मिथ्यात्व के चक्कर में भी वे ही पडते हैं-जिन्होने सम्यक्त्व रूप आधार-स्तंभ को छोड दिया। ऐसी आत्मा नरक निगोद मे भी जा सकती है, किंतु चारित्र से पतित होकर भी जिसने इस प्राधार-स्तम को नहीं छोड़ा, वह ऐसी अधम दशा को प्राप्त नही होती । मिथ्यात्व का क्षय कर देने वाला यदि पहले से आयुकर्म को नही वाधा हुआ हो,