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खुद को परखो
अर्थात-आत्मा के लिए विश्वभर मे यदि कोई सामान्य प्रयोजन-हितकारी वस्तु है, तो एक मात्र निर्ग्रन्थ प्रवचन ही है, और परमार्थ (उत्कृष्ट हितकारी वस्तु) है तो भी यही है। सर्वोपरि कार्य-साधक भी निग्रंथ-प्रवचन ही है । इसके सिवाय संसार की सभी वस्तुएँ, सभी विचार, समस्त प्राचार और सभी प्रयत्न, केवल अनर्थ रूप है । दुख परम्परा को बढाने वाले हैं । इस प्रकार की दृढ श्रद्धा रखने वाला और अनिष्ट संयोगो-विपरीत परिस्थितियो मे भी श्रद्धा को कायम रखने वाला, कालान्तर मे (या भवान्तर मे) क्षायक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लेता है। फिर यथाख्यात चारित्री बनकर और जन से जिन होकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । अधिक से अधिक क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी जीव, १५ भव से अधिक नही करता । फिर वह मोक्ष पा ही लेता है।
खुद को परखो
'मझ मे सम्यक्त्व है,या नही ?'-यह प्रश्न भव्य जीवो के मन में उठना स्वामाविक है । पूर्वाचार्य कहते हैं कि ऐसे प्रश्न भव्य जीवो के मन मे ही उठते हैं । यद्यपि भव्य अभव्य का नि.सन्देह निर्णय छद्मस्थ नही कर सकता और न सम्यक्त्व मिथ्यात्व का फैसला ही कर सकता है। इसका निर्णय सर्वज्ञ के अधिकार में है। देवता और इन्द्र भी (जिनके पास अवधिज्ञान था) अपने, खुद के भव्य, शुक्ल-पक्षी, सम्यक्त्वी आदि होने का निर्णय नही कर सके। वे भगवान् जिनेश्वर देव के पास आये और