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चाहता है। वह तत्त्व की थाह लेने का प्रयत्न करता है, किन्तु सभी मनुष्य सही निर्णय पर ही पहुँचते हैं-ऐसी बात नही है । बहुत से गलत विचारधारा मे पडकर अन्यथा मार्ग ले लेते हैं । बहुत थोडे लोग ही सही मार्ग पा सकते हैं।
सम्यक्त्व का विषय सरल भी है और विकट भी । जो "तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं"-को दृढता पूर्वक हृदय मे रखकर वैचारिक भूलभुलय्या से बचता है, उसके लिए सरल है और तर्क-वितर्क मे पडकर उलझता है, उसके लिए विकट है । उस विकट मार्ग को पारकर सही मार्ग पर दृढता पूर्वक चलते रहने का निमित्त इस पुस्तक ने प्रस्तुत किया है। 'सम्यक्त्व-विमर्श' लेखमाला सम्यग्दर्शन में प्रकाशित हो चुकी थी। यह लेखमाला सम्यक्त्वरूपी आत्म-रत्न को सुरक्षित रखकर जिज्ञासुओ को पूर्ण सतुष्ठ करेगी-ऐसा हमारा विश्वास है । जैनत्व की श्रद्धा, जैनी के हृदय मे दृढतर जमाने वाली हमारे समाज मे अपने विषय की यह अपूर्व पुस्तक है ।
संघ का प्रकाशनकार्य धीमी गति से किंतु प्रगति के पथ पर आगे बढ़ रहा है। संघ के प्रकाशनो से समाज का श्रद्धालवर्ग लाभान्वित हो रहा है । यह हमारे लिए प्रसन्नता की बात है। संघ चाहता है कि धार्मिक साहित्य अधिक मात्रा मे समाज की सेवा मे समर्पित करे ।
इसके प्रकाशन मे प्रियधर्मी श्रीमान सेठ मिलापचंदजी साहब मंड्या निवासी की धर्मशीला मातेश्वरी श्रीमती पतास वाई ने पूरा खर्च प्रदान कर अपने धर्म-प्रेम और उदारता का