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सम्यग्दृष्टि अवन्धक ?
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सम्यग्दृष्टि बन्धक ?
शंका- यह भी कहा जाता है कि 'सम्यग्दृष्टि जीव,
पाप पुण्य कुछ भी नही करता । वह अपने ज्ञान भाव मे ही रहता है । बाहरी क्रियाएं जो होती है, उससे निर्जरा ही होती है, बन्ध नही, क्या ऐसा मानना उचित है ?
समाधान- यदि यह बात प्रकषायी जैसे महान् एव सर्वोत्तम केवलज्ञानी की अपेक्षा से कही जाय, तो उचित हो सकती है, लेकिन सयोगी केवली को भी इर्यापथिकी क्रिया का दो समय का बन्ध तो होता है । सर्वथा प्रबन्धावस्था तो शैलेशी और सिद्ध जैसी महान् आत्माओ की ही है । एवभूत नय की अपेक्षा से ही यह संगति बैठती है, अन्यथा गलत ठहरती है । क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव, सरागी भी होते है, कषायी, प्रमादी और प्रविरत भी होते हैं । अविरत सम्यग्दृष्टि केवल मिथ्यात्व के पाप से वचित रहता है । अविरति उसके उदय मे ही है । फिर उसे बंध रहित कैसे माना जाय ? श्रप्रत्याख्यानी चोक के उदय से उसकी आत्मा प्रभावित है, तभी तो वह अविरत माना गया । देशविरत के अशुभ परिणति भी होती है और सर्वविरत - छठे गुणस्थानी श्रमण के भी प्रमाद के चलते बन्ध होता है, ऐसी दशा मे अविरत सम्यग्दृष्टि को बन्ध रहित कौन मानेगा ? चतुर्थ गुणस्थान को बन्ध रहित और केवल निर्जरा करनेवाला मानना तो सिद्धान्त और प्रत्यक्ष से भी विपरीत है ।
"सम्मत्तदंसी ण करेइ पावं" - यह वाक्य अपेक्षा पूर्वक समझना चाहिए । जो मात्र सम्यग्यदृष्टि है, वह दर्शन = दृष्टि