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सम्यग्दृष्टि का आयुबन्ध
जिस प्रकार इज्जतदार व्यापारी, व्यापार करते हुए हर समय अपनी इज्जत और प्रतिष्ठा का ध्यान रखता है । वह इसके लिये न तो जाहिर उद्घोषणा करता है, न 'इज्जत, इज्जत' यो रटन करता रहता है । वह दूसरे व्यापारियो से बातचीत करता है । लेने वाले से लेता है, देने वाले को देता है । ग्राहको को समझाकर पटाता है, कमाता है, खोता है, फिर भी हरदम सावधानी रखता रहता है कि कही मेरी इज्जत को तनिक भी ठेस नही लग जाय । पनिहारी अपने सिर पर दो-दो और तीन तीन कुम्भ रखकर चलती है, रास्ते मे मिलने वाली से हँस हम कर बाते भी करती है, कभी किसी से लड़ बैठती है, बच्चो को धमकाती है, बडो-बूढो की लाज करती है, इतना सब होते हुए भी वह अपने सिर पर के जल के घडो की ओर से बे-खबर नही है। इसी प्रकार तीव्र चारित्र मोहनीय के उदय से सम्यग्दृष्टि, प्रारम्भ परिग्रह और भोगविलास मे रहा हुअा तथा काषायिक परिणति युक्त होकर भी मिथ्यात्व से वंचित रह सकता है।
सम्यग्दृष्टि का श्रायु-बन्ध शका-सम्यग्दष्टि युक्त और चारित्र मोहनीय के उदय से प्रभावित मनुष्य, वैमानिक देव का ही आयुष्य कसे बांध सकता है, जब कि उस आत्मा पर चारित्र मोहनीय का जोरदार प्रभाव है और उससे उसकी रुचि विषय वासना की ओर बढ़ी हुई है ?
समाधान-मिथ्यात्वोदय का अभाव कोई मामूली वस्तु