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सम्यक्त्व विमर्श
लगकर सम्यक्त्व रूपी आरोग्यता के नष्ट होजाने का भय रहता है।
कुदर्शनी से बचना जितना सरल होता है, उतना दर्शनभ्रष्ट से बचना सरल नही होता । कुदर्शनी तो प्रायः पृथक् ही होते हैं । उनकी चर्या और बाह्य परिधानादि भिन्न प्रकार के होते हैं, किंतु दर्शन-भ्रष्ट तो सम्यग्दृष्टि तथा साधु व श्रावक के लिवास मे भी रहते हैं और इस रूप मे रहते हुए वे सरलता से सम्यक्त्व रूपी रत्ल को लूटकर बदले मे मिथ्यात्व रूपो पत्थर गले मे बांध देते हैं । साधारण जनता तत्त्व को नही जानती। वह वेशादि के कारण भुलावे मे आकर उनके वाक्जाल में फंस जाती है और सम्यक्त्व त्याग कर दर्शन-भ्रष्ट होजाती है। इस प्रकार कुदर्शनी के बनिस्बत दर्शन-भ्रष्ट अति भयंकर होता है। इसीलिए कुदर्शनी से पहले दर्शन-भ्रष्ट को बता कर उसकी अति भयकरता का निर्देश किया है।
इस प्रकार बाधक निमित्तो से दूर रहता हुआ और साधक तत्त्वो के संसर्ग मे रहता हुआ भव्य आत्मा, निरन्तर परमार्थ को आत्मा मे जगाता रहता है और उन्नत होते होते परमार्थमय बन जाता है।
परमार्थ की छाया में
क्षायोपशमिक सम्यक्त्व मे पर (पुद्गल) का संबंध और मिथ्यात्व के दलिको का अस्तित्व रहता ही है। वे दलिक उदय मे नही पाकर सत्ता मे पड़े रहते हैं और उदय प्राप्त प्रदेशोदय