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सम्यक्त्व विमर्श
जाते है और जो उस भव मे सिद्ध नही होते, वे तीसरे भव का अतिक्रमण नही करते अर्थात् तीसरे भव मे सिद्ध हो जाते हैं । धम्मसद्धाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? धम्मसद्धाए णं सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, अगारधम्मं च णं चयइ, अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसागं दुक्खाणं छेदणभेयणसंजोगाईणं वोच्छेयं करेइ, अव्वा - बाहं च णं सुहं निव्वत्तेइ " ॥३॥
हे भगवन् । धर्म श्रद्धा से जीव क्या फल पाता है ? उत्तर-धर्म श्रद्धा से सातावेदनीय कर्मजनित सुख से विरक्त हो जाता है । फिर गृहस्थाश्रम छोडकर अनगार हो जाता है । अनगार होकर शारीरिक और मानसिक छेदन भेदनादि संयोगजन्य दुखो का विच्छेद कर शाश्वत सुख को प्राप्त करता है ।
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"दंसणसंपण्णयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? दंसण संपण्णयाए णं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ परं ण विज्झायइ, परं अविज्झाएमाणे अणुत्तरेणं णाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं भावेमाणे विहरइ " ॥ ६०॥
- दर्शन सम्पन्नता का क्या फल है ? दर्शन सम्पन्नता से भव-भ्रमण का हेतु ऐसे मिथ्यात्व का नाश कर देता है । उसका ज्ञान दीपक कभी नही बुझता । वह उत्कृष्ट ज्ञान दर्शन में श्रात्मा को जोडता हुआ समभाव युक्त विचरता है ||६०||
( उत्तरा . २६ ) ( उत्तरा ६ )
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सद्धं जगरं किच्चा ".
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