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सम्यक्त्व विमर्श
और सावद्यानुष्ठानादि को प्रात्मा के लिए श्रेयस्कर बताया जा सके।
हमारे लिए परमार्थ मे सर्व प्रथम स्थान अरिहंत भगवान् का है, क्योकि वे परमार्थ के मूर्तिमान स्वरूप हैं । वे परमार्थ के जनक सर्जक एव प्रकाशक हैं। उन्ही से धर्म एवं तत्त्व का प्रकाश हुआ है । परमार्थ साधना द्वारा वे स्वयं परमार्थमय बन गये हैं। घातीकर्म रहित उस पवित्र आत्मा रूपी सुमेरु पर्वत से, वीतराग वाणी रूप महा-गंगा प्रकट हुई, जो गणधर रूपी कुड मे से होकर इस अवनितल पर बह रही है और भव्य जीवो के पाप रूपी मैल को धो रही है। उस पवित्र वाणीपरमपद और उसकी प्राप्ति का मार्ग दिखाने वाली वीतराग वाणी (तत्त्वज्ञान) का परिचय करना,पठन, श्रवण, मनन और पृच्छा द्वारा हृदयगम करते रहना तथा परमार्थ के ज्ञाता-ज्ञानियो का सत्सग करते रहना है। इससे सम्यक्त्व की प्राप्ति, स्थिति और वृद्धि होती है । श्रात्मा के निर्मल स्वरूप (सिद्धावस्था) का ज्ञान और उसकी प्राप्ति के साधन-संवर, निर्जरा मे रुचि बढती है । परमार्थ का सतत परिचय रखने वाले के लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता जाता है। उसके पतन की संभावना प्राय नही रहती । अतएव जिनागम और जिनागम के अनुकूल शास्त्रो का स्वाध्याय तथा परमार्थ ज्ञाता का सतत परिचय रखते ही रहना चाहिए।
सुदृष्ट परमार्थ सेवन जिनकी दृष्टि शुद्ध और यथार्थ है, जो परमार्थ के ज्ञाता