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सम्यक्त्व महिमा
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निर्मल एव निष्कम्प रखा, वे यथार्थ ही पडित-समझदार हैं।
'रत्नकरड श्रावकाचार' सेन सम्यक्त्वसमं किंचित्काल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यतन भताम् ॥
-इस जीव को सम्यक्त्व के समान तीन लोक और तीन काल में कोई भी कल्याणकारी नही है और मिथ्यात्व के समान दूसरा कोई भी अकल्याणकारी-दुखदायक नही है ।
उपदेशरत्नाकर मेलहिऊण मोहजयसिरि, मिच्छह जई सिद्धिपुरवरे गंतुं । अक्खयसुहमणुभविडं, ता वरदसणरहं भयह ॥१॥ सुअचरणवसहजुत्तो, आवस्सग-दाणमाइपत्थयणो । निच्छयववहारचक्को, दसणरहु नेइ जणु रिद्धि ॥२॥
-यदि तुम मोह-विजयरूप लक्ष्मी को प्राप्त करके उत्तम स्थान सिद्धिपुर मे जाना और अक्षय सुख का अनुभव करना चाहते हो, तो सम्यगदर्शनरूपी श्रेष्ठ रथ मे बैठो, जो सम्यगज्ञान और सम्यक् चारित्ररूपी बैलो से युक्त षडावश्यक, दान आदि रूप पाथेय सहित तथा निश्चय और व्यवहार रूपी चक्र (पहियो) वाला है । यह दर्शनस्थ, मनुष्य को मोक्षपुरी में ले जाकर महान् ऋद्धि का स्वामी बनाता है ।
कर्तव्य कौमुदीसम्यग्दृष्टिविलोकिते हि सकलं सद्धर्म कृत्यं भवेत् । सम्यग्दृष्टिरुदाहृता जिनवरैस्तत्त्वार्थरुच्यात्मिका ॥