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सम्यक्त्व विमर्श
था कि मुझ मे मिथ्यात्व है । वह अपने आपको सम्यक्त्वी; सत्पथगामी एव शुद्धाचारी ही मानता था और तदनुसार उग्र साधना करता था। उसमे चारित्र की साधना होते हुए भी अकाम-निर्जरा एव शुभ-बन्ध युक्त थी । फिर भी उसकी कषाये शान्त, प्रशस्त एवं विशुद्धिकारक थी। जिस प्रकार चिडिया के बच्चे की ऑखे खुलते हो वह दृश्य-जगत् को देखता है, उसी' सरह उन्हे विभंगज्ञान से, वे आँखे मिली कि जिनसे सत्य को पहिचानने में देर नही लगी । यो तो विभगज्ञान, असख्य देवो और नारको को भी होता है और मनुष्य-तिर्यंचो को भी, किंतु जिनकी कषाये शात हो, जा सत्याथि हो, उसे ही अनायास, निधान की तरह धर्म की प्राप्ति हो जाती है । अतएव ससार के प्रति निर्वेद, धर्म के प्रति सवेग, पापो की विरति और कषायो की उपशाति होने से आत्मोत्थान होता रहता है । यह दशा ऊर्ध्व मुखी हो, तो मिथ्यादष्टि भव्य, सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। भले ही उसे आत्मा के विषय में विशेष जानकारी नही हो और निश्चयवादी उसे मिथ्यादष्टि मानते रहे।
एकात निश्चयवादी, जिसे सम्यक्त्व कहते हैं और आत्मा को कर्म-बध से सर्वथा रहित मानते हैं, वह तो नाटक के इन्द्र की तरह है। जिस प्रकार इन्द्र का स्वाग सजने मात्र से वह देवाधिपति नहीं बन सकता। वह पैसे के लिए स्वाग सजनेवाला सेवक-नौकर ही रहता है, उसी प्रकार कर्मवद्ध, शरीर एवं माधि व्याधि और उपाधि मे जकडा हुआ, आहार संज्ञा से ग्रसित, तेजस शरीर रूपी भट्टी की पूर्ति के लिए, भोजन पानी,