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सम्यक्त्व विमर्श
आप उनके पवित्र, निर्मल एवं स्वच्छ हृदय के दर्शन कीजिये। कषाय की कालिमा और विषय की दुर्गन्ध, उस पवित्र हृदय (-विचारो के उद्गम स्थान) मे है ही नही । उस महान् आत्मा के समस्त प्रदेशो से घातिकर्मों के थर (गाढ बन्धन समूह) सर्वथा नष्ट हो चुके । कितनी भव्य, कितनी पवित्र और कितनी श्रेष्ठ प्रात्मा है वह। यह निर्मलता मुझ मे भी आवे, मेरे आत्म प्रदेश भी वैसे ही स्वच्छ और विशद्ध बन जायँ । प्रभो । मैं धन-माल नही माँगता, पूत्र परिवार नही चाहता और उच्च पद अथवा देवेन्द्र की ऋद्धि भी आपसे नही माँगता । मैं एक सामान्य वस्तु मांगता हूँ । हे नाथ !
"निज दास जान लीजे, इतनी मया करीजे, सम्यक्त्व दान दीजे, माधव विनय सुनाई।"
मुझे सम्यक्त्व की-प्रप्रतिपाति सम्यक्त्व की ही आवश्यकता है । बस यही माँगता ह प्रभो ! आप तो सब को बिना किसी भेद भाव और पक्षपात के सम्यक्त्व ही नही-मुक्ति भी प्रदान करते हैं । आपने गौतमादि हजारो साधु-साध्वियो को तार दिया, आनन्दादि लाखो श्रावक-श्राविकाओ को सम्यक्त्व और विरति प्रदान की। मैं पामर तो केवल सम्यक्त्व ही मांगता हूँ। मैं जानता ह कि आपने तो ससार के समस्त जीवो के हित के लिए प्रवचन रूपी महादान किया। आपका वह महादान आज भी-आशिक रूप मे भी-भव्यात्माओ के लिए उपकारी है । अव तो मेरा ही कर्तव्य है कि मैं उसे अपनाउँ । मांगना मेरा धर्म नही। मांगने से सम्यवत्व मिलती