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आत्मदर्शन और सम्यग्दर्शन
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बनाना सिखाया जायगा, या प्रवेशिका-पोथी पढाई जायगी, तब वह अपने आप समझता जायगा । उसकी ज्ञ पर्याय खुलती जायगी।
प्रात्मा स्वयं ज्ञान का भडार है, किन्तु उसकी ज्ञानपर्याय दबी हुई है। जब वह अक्षर परिचय आदि निमित्त से पुरुषार्थ करने लगता है और श्रवण करता है, तो उसकी ज्ञान पर्याय प्रकट होती रहती है। फिर वह पडित बनकर बड़े बड़े ग्रंथो का रचयिता हो जाता है। किन्तु आपके बताये तरीके से तो हजारो मे एकाध व्यक्ति पर भी सफलता मिलनी असंभव है।
इसी प्रकार सामायिक प्रतिक्रमणादि सिखाना भी आवश्यक है। इन्हे सीख कर फिर पृच्छा प्रादि से स्वरूप समझा जा सकता है और अनुप्रेक्षा से सामायिक सफल की जा सकती है । यदि पहले सामायिकादि नही पढाया जायगा, तो आगे पर उसके भाव-सामायिक प्राप्त करने का निमित्त ही कौनसा रहेगा? शास्त्र मे भी शिष्य को पहले मूलपाठ की वाचना देने का उल्लेख है। अतएव सामायिकादि सम्यक्श्रुत का अभ्यास जिस प्रकार हो रहा है, उसी प्रकार होता रहना चाहिए।
प्रश्न-आप यह तो जानते हैं कि मार्ग का अनजान व्यक्ति भटक जाता है, वह इच्छित स्थान पर नही पहुँच सकता। फिर आत्मा से अनभिज्ञ, आत्मस्वरूप का अनजान एव आत्मदर्शन से वञ्चित व्यक्ति, किस प्रकार मुक्ति पा सकेगा?
उत्तर-अनभिज्ञ व्यक्ति को किसी योग्य व्यक्ति का