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सम्यक्त्व विमर्श
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सकते । जीव और अजीव दोनो स्वतन्त्र द्रव्य हैं । जो श्रात्मा होकर अपने को जङ-कर्मों के बन्धन मे बधा हुआ मानता है, वह मिथ्यात्वी है | वह आत्मा की अनन्त शक्ति को नही समझने वाला अज्ञानी है । जब आत्मा बन्दी ही नही, तो मुक्त होने का प्रश्न ही कैसे हो सकता है ?
समाधान - शरीरधारी को एकात 'मुक्त ग्रात्मा' कहना तो प्रत्यक्ष ही सत्य है । उसे कथचित् बन्द | मानना ही पडेगा । अन्यथा विविध शरीरो और रूपो मे - मनुष्य, पशु, त्रस, स्थावर, सूक्ष्म, बादर आदि पृथक् पृथक् भेदो एव शरीरो मे वह क्यो रहा हुआ है ?
जब सभी आत्मा मे अनन्त ज्ञानादि शक्ति समान रूप से रही हुई है, तो एक ज्ञानी दूसरा अज्ञानी, एक सम्यक्त्वी दूसरा मिथ्यात्वी, एक सुखी दूसरा दुखी, एक सम्पन्न दूसरा विपन्न, एक संज्ञी दूसरा प्रसज्ञी - ये भेदानुभेद ही क्यो है ? जब ये भेद है, तो मानना पडेगा कि शक्ति मे भी भेद है । जब मूल शक्ति सब मे समान रूप से है, इसमे किंचित् मात्र भी अन्तर नही है, तो ये दृश्यमान भेद क्यो हुए ? इसका एक मात्र समाधान यही है कि ग्रात्मा, जड के बन्धनो मे बंध कर पराधीन हो गयी है । उसकी ज्ञानादि शक्ति अवरुद्ध है । छोटे बालक और युवक मनुष्य की मूल आत्म-शक्ति तो समान ही है, पर एक युवक, अनेक बालको से अधिक बलवान है । वह अनेक बालको को भयभीत कर देता है, पीट देता है और जान से मार भी सकता है । उसके सामने वालक तुच्छ, निर्बल और