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सम्यक्त्व विमर्श
माप्त-वचनो के किंचित् भी विपरीत लगता हो, तो उसे स्वीकार नही किया जा सकता। क्योकि वीतराग सर्वज्ञ भगवंतो के सिद्धात मे, छद्मस्थ त्रुटि नही बता सकता। वह इसके योग्य ही नही है । अाजकल के प्रोफेसरो को, पूर्व के ज्ञान का अश भी ज्ञात नहीं है, जब नो पूर्व से अधिक पढे हुए भी मिथ्यादष्टि हो सकते हैं, तो आजकल के इन प्रोफेसरो की हस्ति ही क्या है ? ये तो उनके सामने वामन और बेतिये से भी छोटे हैं। यदि इनकी स्वच्छन्द-बुद्धि के अनुसार सम्यग्दर्शन का रूप बनता हो, तो वह एक रूप मे रह भी नही सकता । भिन्न-भिन्न पडितो के भिन्न भिन्न मत होते हैं, किंतु सम्यग्दर्शन का रूप तो एक ही है । अतएव इसके स्वरूप के विषय मे किसी को अपनी टाग अडाना निरी हिमाकत है, अनधिकार हस्तक्षेप है। एक प्रश्रद्धाल-कुश्रद्धालु, जिनेन्द्र भगवान् के सिद्धातो को बिगाडने की कुचेष्टा करे, यह उसकी स्वच्छन्दता का नग्न ताण्डव ही है।
एक भाषा-शास्त्री है, वह आरोग्य शास्त्री, न्यायशास्त्री, युद्ध-विद्या-विशारद, वाणिज्य निपुण और कृषि विशारद आदि नही हो सकता-यह सब कोई जानते हैं । तब वह धर्म-विशारद धर्मज्ञ और धर्म का महाज्ञानी बनने का ढोग करके प्राप्त सिद्धातो को झुठलाने की कुचेष्टा क्यो करता है ? वह जिन शब्दो और वाक्यो का अपनी स्वच्छन्दता पूर्वक भिन्न अर्थ करता है और संस्कृति के प्रतिकूल परिणाम निकालता है, क्या यह उसकी अनधिकार चेष्टा नही है ?
आत्मार्थियो का कर्तव्य है कि वे हिताहित को समझे