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ज्ञान भी अज्ञान
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भव मे चारित्र प्राप्त नही किया और सम्यक्त्व का संबल भी छूट गया, तो एक बार के सम्यक्त्व के संस्कार, उसमे फिर से सम्यक्त्व को जगा देगा और अधिक से अधिक अर्द्ध पुदगलपरावर्तन तक तो उसे मोक्ष में पहुँचा ही देगा।
ज्ञान भी अज्ञान मिथ्यात्व के सद्भाव मे ऊँचे प्रकार का ज्ञान भी अज्ञान होता है। कई प्राणी ऐसे होते हैं, जिनमे ज्ञानादरणीय के क्षयोपशम से जानकारी अधिक होती है । नव पूर्व से अधिक ज्ञान तक पा लेते हैं, और उनके उपदेश से दूसरे प्रतिबोध पाकर अपना हित साध लेते हैं, किंतु वे तो ज्ञानियो की दृष्टि में प्रज्ञानी ही रहते हैं। जिस प्रकार सम्यक्त्व के अभाव मे उग्र चारित्र भी प्रचारित्र रहता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व के प्रभाव मे पूर्वो का आगमिक ज्ञान भी अज्ञान होता है और तप भी बन्ध का कारण होता है ।
सम्यक्त्व प्राप्त होते ही-उसी समय अज्ञान, ज्ञान के रूप मे परवर्तित हो जाता है । एक समय का भी अन्तर नहीं रहता, फिर भले ही वह स्वल्प ही हो। और बिना सम्यक्त्व के पूर्वो का ज्ञान भी अज्ञान रहता है। सम्यक्त्व मे वह शक्ति है कि वह अज्ञान को ज्ञान बना देती है।
इतना महत्त्व क्यों ? कोई पूछ सकता है कि 'सम्यक्त्व को इतना महत्त्व क्यों