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अक्रिया मिथ्यात्व
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मे पडी हुई रस्सी, सर्प मालूम देती है, उसी प्रकार भ्रम से एक ही आत्मा भिन्न भिन्न भौतिक पदार्थों के रूप मे भासित होती है । वास्तव मे यह भ्रम ही ससार है और भ्रम दूर होना ही मुक्ति है।"
इस प्रकार आत्माद्वैतवादी या ब्रह्माद्वैतवादी, अपने माने हुए भ्रम से मुक्त होना ही मोक्ष मानते हैं। उनके मत मे क्रियासदनुष्ठान का कोई प्रयोजन नही है । जब वे भिन्न आत्मा और उनके कर्म ही नही मानते, तो क्रिया कब मानेगे ? इस प्रकार वे स्वत अनेक प्रकार की क्रिया करते हुए भी आत्मा को अक्रिय मानते हैं।
जैनदर्शन का उपरोक्त मत से,मूल मे ही भेद है, क्योकि जनसिद्धात विश्व मे अनन्त प्रात्माओ का अस्तित्व स्वीकार करता है। उन सभी प्रात्माओ का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है। परिणति सब की भिन्न-भिन्न है । यदि सभी शरीरो मे एक ही आत्मा होती, तो उनकी परिणति भी एक ही प्रकार की होती, सुखी, दुखी, धर्मात्मा, पापी, रोगी, नीरोग, छोटा, बड़ा, सम्पन्न, विपन्न, मनुष्य, पशु, पक्षी, त्रस, स्थावर, देव, नारक आदि भेद क्यो रहते ? यदि विश्व मे मात्र एक ही प्रात्मा है और सारे संसार मे सर्वत्र उसीका निवास है, तो सब की परिणति, अनभव, कार्य और फल एक समान ही होते । एक सुखी तो सब सुखी और एक दुखी तो सब दुखी, एक भूखा तो सभी भूखे और एक प्यासा तो सभी प्यासे । गति, स्थिति, लेश्या, अध्यवसाय आदि की भिन्नता होनी ही नही चाहिए थी। एक मरता