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________________ १९८ सम्यक्त्व विमर्श और निर्वाण का मार्ग है, किंतु इसका पालन सासारिक सुखो के लिए करना, संवर और निर्जरा की करणी, बंध के उद्देश्य से करना अर्थात् स्मरण और तप, रोग-निवारण, द्रव्य-प्राप्ति, पुत्र-लाभ आदि कामना से करना, पाले हुए संयम तप अथवा श्रावकपन के उत्तम फल को, निदान करके गँवाना, यह सब धर्मगत-लोकोत्तर-मिथ्यात्व है। निवृत्ति प्रधान धर्म को प्रवृत्ति-प्रधान कहना, मोक्षमार्गी को ससार-मार्गी बतलाना, लोकोत्तर धर्म को लौकिक मतो की समानता मे रखना, अनेकातवाद का दुरुपयोग करके एकातवादी मतो से जैनधर्म का समन्वय करना, जैनधर्म का महत्व घटाना, तथा लौकिक धर्मों के साथ गठबन्धन करके समस्त धर्मों का सम्मिलन जोडना, यह सब अमृत और विष का मेल मिलाना है। जिस प्रकार अच्छी वस्तु मे बुरी वस्तु और असली वस्तु मे नकली का भेलसंभेल करना, श्रावक के तीसरे व्रत का अतिचार है, उसी प्रकार अनेकातवाद मे एकातवाद, मुक्तिवाद मे बन्धवाद और मोक्ष-मार्ग मे ससार मार्ग का मिलाना. मिथ्यात्व है। निरवद्य मे सावद्य का संमिश्रण करना और सर्वधर्मसमभावी बनना भी लोकोत्तर-धर्मगत मिथ्यात्व है। ___लोकोत्तर-मिथ्यात्व मे आजकल एक विषय बहुत बड़ा प्रभावशाली हो गया है । इसके चक्कर से जैनधर्म को विश्वव्यापक-विश्वधर्म बनाने की, असंभव एवं अशक्य, किंतु मोहक भावना ने, लोकोत्तर-मिथ्यात्व सेवन करने के लिए बहुतो को
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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