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संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्नमाला का २० वा रत्न
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सम्यक्त्व विमर्श
परमत्थसथवो वा, सुदिट्ठपरमत्थसेवणा वावि । वावण्णकुदंसण-वज्जणा, य सम्मत्त-सद्दहणा ॥
-परमार्थ का १ संस्तव-परिचय एवं कीर्तन करना, २ सुदृष्ट-परमार्थ के ज्ञाता की सेवा करना, ३ सम्यक्त्व से पतित की संगति का त्याग करना और ४ कुदर्शन-मिथ्यादर्शनी की सगति का त्याग करना । (उत्तराध्ययन २८)
जीव, बेभान अवस्था मे अनन्त काल रहा । अनादि काल से जीव मिथ्यात्व की अवस्था में रहता आया । जीव का अधिकांश काल असंज्ञी अवस्था में ही गुजरा, जिसमे किसी विषय पर विमर्श करने की शक्ति ही नही थी। मन के प्रभाव मे वह किसी विषय पर विमर्श कर ही नहीं सकता था। सम्यक्त्व ही क्या, वह मिथ्यात्व के विषय मे भी नही सोच सकता था।