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अमुक्त को मुक्त मानना
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इतना ज्ञान होने के बाद ही मक्त होने का उचित प्रयत्न प्रारंभ होता है । जो इस प्रारंभिक ज्ञान से ही वचित हो, उन्हे मुक्त मानना तो अपनी मिथ्या परिणति ही प्रकट करना है।
__ मुक्त जीवो का स्वरूप कैसा है, क्या उनके शरीर, इन्द्रियाँ और मन होता है, खान-पानादि क्रियाएँ होती है, वे वहा क्या करते हैं, इत्यादि बातो को यथार्थरूप से नहीं जानने वाले, उस अनजान मुसाफिर जैसे होते है, जो चलता तो है, किंतु उसे अपने गतव्य स्थान का पता ही नही है । इस प्रकार के जीव, घानी के बैल की तरह संसार-चक्र मे ही पडे रहते हैं। उन्हे मुक्त मानना गभीर भूल है।
___ सत्य यह है कि जो मुक्त हो चुके हैं, वे संसार के सभी कारणो को नष्ट करने के बाद मुक्त हुए हैं । मुक्तात्माओ के शरीर,वाणी, मन और इन सब का कारण-कार्मण-शरीर होता ही नही । इस कारण के अभाव में उनका जन्म ही नही होता, फिर मृत्यु की तो बात ही क्या ? किंतु संसार से मुक्त कहे जाने वाले आराध्यो के विषय मे जब हम सोचते है, तो बात ही उलटी दिखाई देती है । अवतारवाद की मान्यता ही यह बतलाती है, कि जिन्हे मुक्त माना जा रहा है, वे वास्तव में अमुक्त (बंदी) ही हैं । मुक्त जीव, मुक्ति से वापिस लौटता नहीं और जो लौटता है, वह मुक्त हुआ ही नहीं।
जैन-धर्म ने मुक्त अमुक्त का स्वरूप वास्तविक रूप से प्रकट किया है । जैन-धर्म का सिद्धात है कि मुक्त सिद्धात्मा, किसी का हिताहित नही करते। उन्हे न तो अपने उपासको