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________________ अजीव को जीव मानना १२७ कसाई का भी भेद नही हो, वहा सम्यक्त्व कैसे हो सकती है ? जीवन की इच्छा से यदि कोई विष पीवे और उसमे अमत की कल्पना करले, तो क्या विष अपना प्रभाव नही दिखायगा? भावो की सरलता से मिथ्यात्व मिटकर सम्यक्त्व नही हो जाता, आखिर गलती तो गलती ही रहती है और उसका परिणाम भोगना पडता है। अनात्मवादी नास्तिक तो आत्मा को मानते ही नही, इसी तरह पुण्य पाप और स्वर्ग नरकादि भी नही मानते । यहा हम उनका जिक्र नहीं करते, हम यहा उन्ही मन्तव्यो को लेते है कि जो अजीव को जीव मानते हैं । जो जडशरीर को ही सच्चिदानन्द रूप मान कर इसीके पोषण रक्षण आदि मे लगे रहते हैं और आत्मा को उससे भिन्न नही मानते। जो मात्मा को शरीर से भिन्न नही माने, उनका धर्म अधर्म और ससार तथा मोक्ष मार्ग से सम्बन्ध ही क्या ? वे तो इनकी भी आवश्यकता नही मानेगे। धर्म अधर्म आदि की आवश्यकता उन्ही को है जो आत्मा को माने । उसे देहादि अजीव पदार्थ से भिन्न माने और स्वर्ग नर्क आदि की श्रद्धा भी रखे । अजीव को जीव मानने वाले की भूल मामूली नहीं है, भयकर भूल है। आजकल के वैज्ञानिक एवं चिकित्सा शास्त्री, रोगो का कारण 'किटाणु' (जीव) मानते है । संभव है उनमे किटाणु भी हो और अजीव के बारीक कण (स्कन्ध) भी हो और उन अजीव कणो को भी वे किटाणु कहते हो । हवा मे जीव भी उड़ते हैं और रजकण आदि भी उड़ते है । सुगन्ध दुर्गन्ध के
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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