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________________ १२२ सम्यक्त्व विमर्श यो तो कपाय के त्याग का उपदेश, अजैन परपरा मे से साख्य, बौद्ध आदि मे भी दिया है और कोई कोई उसका कुछ पालन भी करते है। अनन्तानुबधी के सदभाव मे, उनकी पतली कपाये, उन्हे स्वर्ग में पहुंचा सकती है किंतु मुक्ति नहीं दे सकती । प्रथम गुणस्थान मे तीनो शुभ लेश्याएँ है, शुक्ल लेश्या भी है, और सयोगी जिनेश्वरो मे भी शुक्ल लेश्या है, लेकिन दोनो मे आकाश पाताल का अन्तर है । एक जन्म मरण के चक्कर मे उलझा हुआ है, उनमें से कोई अभव्य भी है, और दूसरे परम वीतराग सर्वज्ञ सर्वदर्शी है, जिन्होने जन्म के बीज को ही नष्ट कर दिया है। वे शीघ्र ही मृत्युजयी होने वाले है। उन परम वीतरागी भगवन्तो ने मुक्ति का मार्ग बताते हुए कहा कि'पहले अनंतानुबधी और दर्शनत्रिक को नष्ट करी । इसके बाद तुम्हारा त्याग, तप और विरति तुम्हे प्रात्मा से परमात्मा वनने में सहायक होगी। इसके बिना तुम्हारी मुक्ति कदापि नही हो सकेगी। सम्यग्दर्शन और सम्यग् ज्ञान होने के बाद ही विरती, मोक्ष साधक हो सकती है । मोक्ष साधना मे सर्व प्रथम सम्यग्दर्शन की आवश्यकता है । उसके बाद विरति अप्रमत्तता प्रादि की । सम्यग्दर्शन परंपरा कारण है और सयम, तप अप्रमत्ततादि साक्षात् कारण है । यही मोक्ष मार्ग है । यही सुमार्ग है । इस सुमार्ग को जनेतर लोग, कुमार्ग-कायरो का मार्ग कहते हैं । कुछ जैन नामधारी भी सयम साधना को 'जड क्रिया' कहते हैं और उपासको को ससार मार्ग की ओर आकर्पित करते है। कोई कोई
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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