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सम्यक्त्व विमर्श
मिथ्यात्व के भेदो का वर्णन किया जाता है।
१ अधर्म को धर्म मानना
जिस मत अथवा आचरण मे प्रात्मा को विशुद्ध करके शाश्वत सुख देने की योग्यता नही, जो आत्मा को जन्म-मरणादि दुखो से नही छुडा सकता और संसार मे रुलाता ही रहता है, ऐसे मिथ्यात्व, अज्ञान, अविरति, प्रारम्भ परिग्रह और कषाय को बढाने वाले अधर्म-प्रवर्तक मतो और क्रियाओ को धर्म मानना, अव्वल नम्बर का मिथ्यात्व है। कई लोग गरीव पशुपक्षियो को बलि चढा कर धर्म मानते है, तो कई यज्ञादि मे ही धर्म की कल्पना करते है । कई कन्यादान करना परम धर्म मानते हैं, तो कई ऋतुदान करना धर्म की आराधना होना कहते हैं । स्थावर तीर्थों की यात्रा और नदियो मे स्नान करने से धर्म की प्राप्ति होना मानने वाले भी ससार मे करोडो है। वृक्ष-पूजा, मूर्ति-पूजा, व्यन्तरादि देवो की स्तुति आदि अनेक प्रकार के अधर्म ससार मे, धर्म के नाम पर चल रहे है। मदिरा मास, मैयनादि पंच मकार के सेवन करने रूप अधर्म को धर्म मानने वाले भी इस संसार मे है । इस प्रकार ससार मे अधर्म को धर्म मानने वालो की जिधर देखो उधर बहुलता दिखाई देती है।
जिस मत मे सम्यक विचार नही, जिनके प्राचार मे हिंसा, झूठ आदि अठारह पापो की विरति नही, जिनके शास्त्र, विषय कपाय को प्रोत्साहन देने वाले हैं और जिनके तप मे