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सम्यक्त्व विमर्श
मिथ्यात्व नष्ट किया और सम्यक्त्व प्राप्त की, वे सभी अनादि मिथ्यादृष्टि ही थे । मुक्ति प्राप्त सभी सिद्ध भगवान् भी पहले अनादि मिथ्यादृष्टि थे। उन्होने ग्रन्थी-भेद करके सम्यक्त्व प्राप्त की। वर्तमान मे भी ऐसे जीव है, जो अनादि मिथ्यात्व को दबाकर या नष्ट कर (महाविदेह मे) सम्यक्त्व प्राप्त करते है, और अनन्त जीव ऐसे हैं जो अभी तो अनादि मिथ्यात्व मे ही पडे हैं, लेकिन भविष्य में कभी भी मिथ्यात्व को नष्ट कर सम्यत्व प्राप्त करेगे।
३ सादि सपर्यवसित मिथ्यात्व
मिथ्यात्व की आदि भी है और अन्त भी। दूसरे प्रकार मे मिथ्यात्व को अनादि बतलाया और मिथ्यात्व, समप्ठि और व्यक्ति की अपेक्षा भी अनादि ही है । यह जीव के साथ सदा से लगा हुआ ही रहता है, फिर यह तीसरा भग कैसे बना ? समाधान है कि जीव अनादि मिथ्यात्व को त्याग कर सम्यक्त्वी बनता है, किंतु इसका यह नियम नही है कि वह फिर कभी मिथ्यात्व मे जा ही नही सकता । एक क्षायिक सम्यक्त्व के सिवाय, उपशम और क्षयोपशम सम्यक्त्व मे पतन की संभावना रहती है, अर्थात् सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व मे प्रवेश हो जाता है। दूसरी बार मिथ्यात्व की प्राप्ति ही उस मिथ्यात्व की आदि बतलाता है। बस यही भेद तीसरे प्रकार का है । इस भेद वाला प्राणी गफलत मे आकर मिथ्यात्व मे गिर पड़ता है, किंतु उस मिथ्यात्व मे वह अर्द्ध पुद्गल-परावर्तन काल से अधिक नहीं रहता । सम्यक्त्व के पूर्व संस्कार उसे