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दोष-परपाषंड परिचय
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प्रथम के तीन दोष तो मुख्यतः खुद के मनोविकार से सम्बन्ध रखते हैं। इनमे दूसरो की प्रेरणा का बल नही भी होता। इसलिए ये दोष तो उचित समाधान होने पर टल भी सकते हैं, किंतु बाद के 'परपाषड प्रशया' तथा 'परपाषड परिचय' ये दो दोष अत्यंत भयकर होते हैं। इनके द्वारा शकादि की उत्पत्ति होती है और परपाषंड की ओर खिंचाव भी होता है, जिससे प्रथभ्रष्ट होना अत्यत सरल हो जाता है । आनन्द, परपाषंड परिचय के खतरे की भयानकता समझ चुका था। इसलिए उसने भगवान के बताये हुए व्रतो के अतिचारो को धारण कर लिया और इन दोषो से बचने के लिए खासतौर से प्रतिज्ञा की कि
"नो खल मे भंते ! कप्पइ अज्जप्पभिई अण्णउत्थिए वा अण्णउत्थिय देवयाणि वा अण्णउत्थियपरिग्गहियाणि वा वंदित्तए वा णमंसित्तए वा पुद्वि अणालत्तणं आलवित्तए वा संलवित्तए वा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा।"
भगवन् । मैं यह प्रतिज्ञा करता हूं कि आज से 'अन्य तीथिको, अन्यतीथिक देवो और सम्यक्त्व का वमन करके अन्यतीथिको मे मिले हुए पूर्व परिचितो को वन्दनादि नही करूँगा, बिना बुलाये नही बोलूंगा और बारबार भी नही बोलूंगा, उन्हे अशन, पान, खादिम और स्वादिम नही दूंगा, बारबार नहीं दूंगा।" इस प्रतिज्ञा मे आनन्द विशेष रूप से 'परपाषडी परिचय' से बचने का इकरार करता है । यह सोचने की बात है।