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दोष-परपाखण्डी प्रशंसा
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अन्य प्रवचन को अनर्थ कारक बता रहा है । यह पाठ भी-'सेसे अणठे शब्द से अन्य दर्शनी के प्रवचन को त्याज्य घोषित कर रहा है।
परपाषण्ड प्रशसा का अर्थ 'श्राद्ध प्रतिक्रमण वृत्ति में
'संका कंखा विगिच्छा, पसंसतहकुलिंगीसु, संथवों' इस गाथा की व्याख्या मे-'सर्वज्ञप्रणीतधर्म व्य. तिरिक्तानां कुलिगिनां वर्णवाद प्रशंसोच्यते .......... शाक्यपरिव्राजकादिभः सह यः संवसन-भोजनादिऽऽलापादिलक्षणः परिचया" । 'धर्म संग्रह' के ४२ वे श्लोक तथा इसकी टीका का भी यही अभिप्राय है।
इत्यादि अनेक प्रमाण हैं और ये अर्थ निश्चय दृष्टि से किये हुए अर्थ के प्रतिकूल भी नहीं है। क्योकि 'परपाषण्डी' लोग, व्यवहार धर्म की दृष्टि से भी परिचय के योग्य नही है, तब । निश्चय दृष्टि से तो हो ही कैसे सकते हैं ? तथा कुतीर्थी लोग, पुद्गलाभिमुखी विशेष होते हैं । जो आत्मवादी कहलाते हैं, वे भी स्वरूप की अज्ञानता से विपरीत दृष्टा होते हैं,इसलिए वर्जनीय हैं । अतएव प्रचलित अर्थ सत्य है, तत्थ है एवं सप्रमाण सिद्ध है । इसे गलत कहने वाले स्वयं भ्रम में पड़े हुए हैं।
परपाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड संस्तव, अतिचार,पूर्व के शंकादि तीनो अतिचारो को उत्पन्न करने वाले हैं और अनाचार तक पहुंचा कर मिथ्यात्व में ले जाने वाले हैं। अतएव इनका निवारण आवश्यक है।