SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एकतालीसवां बोल-८६ वस्था में पहचने के लिए ही सद्भाव प्रत्याख्यान किया जाता जाता है । भगवान् ने कहा है-सद्भाव-प्रत्याख्यान करने से जीवात्मा शेष कर्माशो का नाश करके सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर परिनिर्वाण प्राप्त करता है और समस्त दु.खों का अन्त करके चरम सीमा पर पहुचता है । भगवान् ने जगत् के कल्याण के लिए जो कुछ कहा है उसे हृदय में स्थापित करके जीवन को सार्थक करने का प्रयत्न करना चाहिए । भगवदवाणी को जीवन में उतारने से ही आत्मकल्याण हो सकता है। विचार को आचार मे लाना कल्याण का मार्ग है । सदभावप्रत्याख्यान का अर्थ यथाभूत प्रत्याख्यान अर्थात् सच्चा त्याग है । सच्चा और अन्तिम त्याग तभी हो सकता है, जब ससार के समस्त बधनो का त्याग करके शैलेशी अवस्था अर्थात् चौदहवे गुणस्थान की भावावस्था प्राप्त कर ली जाये । सद्भावप्रत्याख्यान के प्रश्न को दूसरे शब्दो मे इस रूह मे रखा जा सकता है कि चौदहवा गुण-थान प्राप्त करने से जीव को क्या लाभ होता है ? चौदहवें गुणस्थान की स्थिति पाच लघु अक्षर अर्थात् अ, उ, इ, उ ऋ,ल उच्चारण करने मे जितना समय लगता है, उतने समय की है । यह अवस्था साव्यवहारिक सकर्ण नहीं है अर्थात् वाणी द्वारा नही कही जा सकती फिर भी गौतम स्वामी ने इस अवस्था के विषय में प्रश्न पूछा है। शास्त्र मे प्रारभिक अवस्था के विषय मे जैसे प्रश्न किया गया है उसी प्रकार अतिम अवस्था के विषय मे भी किया गया है इस प्रश्न से यह बात स.प्ट विदित हो जाती है कि मोक्ष के लिए चौदहवे गुणस्यान का भी त्याग करना पड़ता है । श्रीदश
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy