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________________ ६२-सम्यक्त्वपराक्रम (४) भाव का प्रत्याख्यान किया जाता है । यह सद्भावप्रत्याख्यान करने के बाद किसी भी प्रकार का त्याग करना शेष नहीं रहता । बस यही त्याग अन्तिम त्याग होता है । भगवान् ने चौदह गुणस्थान बतलाये हैं । गुणस्थान । अर्थात् आत्मिक गुणो का विकासक्रम । इन चौदह गुणस्थानों मे से पहला गुणस्थान ( मिथ्यात्व ) तो सभी को भोगना पडता है अथवा सभी ने भोगा है और बहुत-से भोग रहे हैं, क्योकि यह प्राथमिक भूमिका है। जीवात्मा जब इस प्राथमिक भूमिका का अतिक्रमण करता है तभी वह ऊर्ध्वगामी बनता है। दूसरे गुणस्थान में जाने के विषय में शास्त्र में कहा गया है कि जीव पहले गुणस्थान से सीधा दूसरे गुणस्थान मे नही जाता । पहला गुणस्थान छूटते ही जीव प्रायः चौथे गुणस्थान मे पहुचता है । वहा सम्यग्दृष्टि हो जाता है । फिर सम्यक्त्व से गिरते समय दूसरे गुणस्थान में आता है। जेसे वमन होने के बाद मुह मे थोडी देर तक उस वस्तु का स्वाद रहता है, अथवा वृक्ष से गिरते समय फल थोडी देर तक बीच मे रहता है, इसी प्रकार की सास्वादन अवस्था है । (सम्यक्त्व से भ्रष्ट होने के बाद और मिथ्यात्वदशा में पहुचने से पहले की अवस्था को दूसरा सास्वादन गुणस्थान कहते हैं ।) तीसरा मिश्र गुणस्थान है। इस गुणस्थान मे आने वाला जीव भेदभाव नही मानता । वह सबको समान समझता है । यद्यपि यह गुणस्थान दूसरे गुणस्थान से नम्बर मे ऊ चा है, परन्तु इस गुणस्थान मे मिश्र-सदिग्ध अवस्था
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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