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________________ ३६८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) जघन्य योग समझना चाहिए । इसी प्रकार जघन्य काययोग के असख्यात भेद करके असख्यात समयो मे उसका पूर्ण निरोध करते हैं। इसके पश्चात् पांच लघु अक्षरो के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय की स्थिति भोगकर समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्नध्यान के चतुर्थ भेद का आलम्बन करके शेष रहे हुए वेदनीयकम, आयुकम, नामकम और गोत्रम का क्षय करते हैं । मोहनीय कर्म का क्षय होने से तीन घाती कर्म तो नष्ट हो जाते हैं, पर चार अघ ती कम बाकी बच जाते हैं। इन चारों का एक साथ क्षय करके औदारिक, तेजस और कामण शरीर का त्याग करके, सरलश्रेणी प्राप्त होकर 'फुसमानगसि' से जाते हैं । अर्थात् सिद्ध भगवान् टेढो गति नही करते सीधी गति करते हैं । 'अफुसमानगति' का अर्थ यह नहीं है कि वे आकाश के प्रदेशो का स्पर्श नही करते । टेढी मेढी गति न करके सीधी गति करना ही इसका अर्थ है। टेढी-तिरछी गति कर्म के निमित्त से होती है। वीतराग पुरुष जब मुक्त दशा प्रप्त करते है, तब उनके सभी कर्म नष्ट हो चुकते हैं । अतएव वे सीधी और साकार उपयोगपूर्वक गति करते हैं । उपयोग के दो प्रकार है-साकार-उपयोग और निराकार-उपयोग । साकार-उपयोग ज्ञान का होता है और निराकार- उपयोग दर्शन का होता है । कुछ प्राचार्य ज्ञान और दर्शन का उपयोग एक ही साथ होना कहते हैं, परन्तु शास्त्र के पाठ से स्पष्ट सिद्ध होता है कि दोनो उपयोग एक साथ प्रयुक्त नहीं होते । सिद्ध होने वाले प्रात्मा ज्ञानोपयोग
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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