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बहत्तर-तेहत्तरवां बोल
शैलेशी तथा निष्कर्मता वीतराग पुरुष किस प्रकार मुक्तदशा प्राप्त करते हैं, इस विषय मे भगवान् महावीर ने फर्माया है -
अह पाउय पालइत्ता अन्तोमुहत्तद्धावसेसाए जोगनिरोह करेमाणे सुहमकिरिरं अप्पडिवाइं सुक्कज्माण झायमाणे तप्पढमयाए मणजोगं निरंभइ, वइजोगं निरु भइ, कायजोगं निरंभइ, प्राणपाणनिरोहं करेइ, ईसि पंचहस्सक्खरुच्चारणट्ठाए य ण अणगारे समुच्छिन्न किरिय अनियट्टिसुक्कज्माण झियायमाणे वेयणिज्ज आउयं नामं गोत्तं च एए चत्तारि कम्मसे जुगवं खवेइ ॥७२॥
तो प्रोरालियतेयकम्माइ सव्वाहि विष्पजहणाहिं विप्पजहित्ता उज्जुसे ढिपत्ते अफुसमाणगई उड्ढे एपसमएणं प्रविग्गहेणं तत्थ गंता सागारोवउत्ते सिज्झइ, बुज्झई, जाव अन्त करेइ ।। ७३ ॥