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________________ ___३६२-सम्यक्त्वपराक्रम (५) (६) नामकर्म- गति, शरीय, प्राकृति, वर्ण प्रादि निश्चित करने वाला कर्म । (७) गोत्रकर्म - उच्च-नीच गोत्र (कुल) मे जन्माने वाला कर्म। (८) अन्तरायकर्म-दान, लाभ, भोग आदि प्राप्ति में विघ्न डालने वाला कर्म । इन आठ प्रकार के कर्मबन्धो से मुक्त होने के लिए जीवात्मा को राग, द्वेष और मिथ्यादर्शन पर विजय प्राप्त करना पड़ता है । क्योकि जब तक जीव इन्हें नहीं जीत लेता तब तक वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र की आराधना में उद्योगशील नही होता । जब आत्मा इस रत्नत्रय की आराधना में उद्योगशील होता है, तभी वह कर्मग्रन्थि तोडने मे समर्थ बन सकता है। कर्मग्रन्थि को तोड़ने के लिए सर्वप्रथम मोहनीयर्म को जीतने की खास आवश्यकता है। मोहनीयकर्म का स्थान सब कर्मों मे उच्च है। जैसे राजा को वश मे कर लेने पर उसका दल-बल सहज ही वश मे हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के इस राजा (मोहनीय) को जीत लेने पर शेष कर्म अनायास ही जीते जा सकते है । जिस वृक्ष की जड सूख जाती है, पानी सोचने पर भी वह उग नही सकता । इसी प्रकार कर्मोत्पत्ति के मूल कारण मोहनीयकर्म के नष्ट हो जाने पर अन्य कर्म उत्पन्न नही होते । पाठ कर्मों मे चार घाती हैं और चार अवाती हैं । घाती कर्म आत्मा के मूल गुणो का घात करते हैं, अतएव
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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