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________________ ३५८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) तभी सम्यग्ज्ञान, दर्शन और चारित्र के पर्याय उत्पन्न होते हैं । अतएव अगर तुम सिद्धान्त के अनुसार राग द्वेष को जीतना चाहते हो तो बाहरी तौर पर ही राग-द्वेष को जीतने मे मत लगे रहो पर भीतर से भी उन्हे जीतने का प्रयत्न करो । भीतर और बाहर से राग-द्वेष को जीतोगे तो तुम्हारे आत्मा का अवश्य कल्याण होगा । कर्म का बन्धन एक महाबन्धन है। जब तक जीवात्मा कर्मबन्धन से बद्ध है, तब तक उसे सच्चे सुख की प्राप्ति नही हो सकती । शाश्वत सुख प्राप्त करने के लिए आत्मा को कर्मबन्धन से मुक्त होना चाहिए । बन्धन मे दुख और मुक्ति मे सुख है। कर्मबन्धन के कारण ही प्राणी अनेक प्रकार की सासा. रिक दु.खपरम्पराए सहन करते हैं। प्राणी जिस सुख-दुःख का अनुभव करते हैं, उसका मुख्य कारण शुभ-अशुभ कर्म है। कर्म अर्थात मानसिक, वाचिक और कायिक शुभाशुभ व्यापार और उनसे बद्ध होने वाले कार्मण वर्गणा के पुद्गल । प्राणी मन, वचन और काय से शुभ या अशुभ प्रवृत्तियां करते हैं और इन प्रवत्तियो के अनुसार ही शुभ-अशुभ फलसुख-दुःख उन्हे प्राप्त होता है। ससार मे कोई गरीव, कोई अमीर, कोई दुखी, कोई सुखी, कोई राजा तो कोई रक है । इस विचित्रता का मुख्य कारण कर्म है । जीवात्मा मानसिक, वाचिक और कायिक कर्मदण्ड से ही दण्डित होता है और फलतः जुदीजुदी योनियो में भ्रमण करता है। कर्म का बड़ा भारी दण्ड ससार के जाल में से मुक्त
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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