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________________ ३३०-सम्यक्त्वपराक्रम (५) की निर्जरा करनी हो तो मान को जीतने का प्रयत्न करो। मान बडो-बडो को पतित कर देता है । इसलिए अभिमान त्यागो । इस विषय मे एक कवि ने ठीक ही कहा है :मान रे मानव ! मान बुरो अति, मान गुमान न मान न नीको, मान मिटे सम्मान बधे परम न, करो शुभ वाक्य यति को । मान किया अपमान लहै नवि मान लहे वर देवपुरी को। मानव देह समान नहीं कछ धर्म सु मान के जाति मली को ।। इस कविता का भावार्थ यह है हे पुरुष ! मानअभिमान करना बहुत बुरा है। अभिमानी व्यक्ति को अपमान का दुख भोगना पडता है और अभिम न का त्याग करने वाले को बदले मे सन्मान प्राप्त होता है। निरभिमान व्यक्ति को इन्द्र भी नमस्कार करता है । यह बात सिद्ध करने के लिए शास्त्रकार ने श्री उत्तराध्ययन सूत्र मे एक ऐतिहासिक उदाहरण उद्धत किया है : दसण्णरज्ज मुदियं चइत्ताणं मुणो चरे । दसण्णभद्दो निखतो सक्ख सक्केण चोइयो । (उत्तरा० १८, ४४ ) अर्थात -शकेन्द्र की प्रेरणा होने से प्रसन्न और पर्याप्त दशाण-राज्य को त्याग कर दशार्णभद्र ने त्यागमार्ग अपनाया। दशार्णभद्र राजा ने अभिमान त्याग कर किस प्रकार त्यागमार्ग अपनाया, इस विषय मे निम्नलिखित कथा प्रच. लित है अाजकल जिसे मन्दसौर कहते हैं उसका प्राचीन नाम दशार्णपुर है। दशार्णपुर का राजा दशार्णभद्र था । राजा धर्मनिष्ठ और भावनाशील था । उसने विच र किया -
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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